Sunday जज्बात: भैया राज्यमंत्री थे, विकास दुबे ने थाने में ही उनके सीने में 5 गोलियां दाग दीं; 8 साल हम घर … – दैनिक भास्कर

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  • Brother Was A Minister Of State, Vikas Dubey Fired 5 Bullets In His Chest In The Police Station Itself, Because Of Fear We Did Not Come Out For 8 Years

34 मिनट पहलेलेखक: मनोज शुक्ला

2001 की बात है। हमारे इलाके में उन दिनों गैंगस्टर विकास दुबे का बोलबाला था। पुलिस और नेताओं की शह के चलते वह दिन-ब-दिन ताकतवर होता जा रहा था। लूटपाट, हत्या, वसूली ही उसका धंधा था। उस दिन दोपहर के शायद 2 बज रहे थे। मेरे पास किसी का फोन आया कि भैया की हत्या हो गई है। मैं भागते हुए शिवली थाने गया। वहां देखा कि भैया की खून से लथपथ लाश पड़ी है। विकास दुबे ने भैया की छाती में 5 गोलियां दागी थीं।

भैया की लाश देखकर मैं अचेत हो गया। 4 साल तक तो मुझे नींद नहीं आई। रात भर जागता रहता था। मेरे भाई का नाम संतोष शुक्ला था। तब वे यूपी की राजनाथ सरकार में दर्जा प्राप्त राज्यमंत्री थे। मेरे होश में शायद आजादी के बाद पहला मौका था जब पुलिस थाने में किसी राज्यमंत्री की हत्या हुई थी। पुलिस और सरकार के लिए महज यह हत्या थी, लेकिन मेरे घर की नींव ऐसी हिली कि आज तक हम संभल नहीं पाए।

हम कानपुर के बम्हरौली गांव में रहते थे। आठ भाई और सात बहनें थीं। पिता खेती-किसानी करते थे। भैया ग्रेजुएशन करने के लिए कानपुर शहर में बुआ के पास रहने लगे। फिर धीरे-धीरे उन्होंने हम सभी भाई बहनों को शहर बुला लिया। वे चाहते थे कि खुद की पढ़ाई के साथ अपने भाई-बहनों को भी पढ़ा दूं। खर्च की व्यवस्था तब खेती से ही हो रही थी।

इमरजेंसी के दौरान भैया जेल गए। 21 महीने बाद जब वे जेल से लौटे, तो उन्हें युवा मोर्चा का अध्यक्ष बनाया गया।

इसके बाद भैया ने कानपुर के एसडी कॉलेज में एडमिशन लिया। यहीं से उनकी छात्र राजनीति की शुरुआत हुई। वे चुनाव भी लड़े, लेकिन पहली बार कामयाबी नहीं मिली। हालांकि उनका औरा ऐसा था कि चुनाव हारने के बाद भी वे अपना कुनबा मजबूत करते गए। जो भी उनसे मिलता था वो उनके साथ जुड़ता जाता था। इसकी सबसे बड़ी वजह यह थी कि वे अपने साथियों के लिए किसी से भी भिड़ जाते थे।

मुझे याद है कि छात्रसंघ चुनाव में उनके विपक्ष में एक पचौरी जी खड़े हुए थे। वे चुनाव भी जीत गए। तब उन्हें कॉलेज में पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी का कार्यक्रम करवाना था, लेकिन पचौरी जी को किसी छात्रनेता ने धमकी दे दी। इस पर पचौरी जी घर पर भैया के पास मदद मांगने आए।

भैया ने उनसे कहा कि आप अंदर की व्यवस्था संभालिए और मैं बाहर की संभालता हूं। और सच में भैया ने उन लोगों को दौड़ा-दौड़ा कर मारा जो वाजपेयी जी के कार्यक्रम में खलल डालना चाहते थे। जबकि यह कार्यक्रम उनके विरोधी गुट के लोगों ने करवाया था। इसके बाद भी उन्होंने खुलकर मदद की।

इसके बाद पचौरी जी और भैया में दोस्ती हो गई। वे अधिकारिक तौर पर जनसंघ में शामिल हो गए और यही से उनकी एक तेज-तर्रार नेता बनने की शुरुआत हुई। वक्त गुजरता रहा। इस बीच उन्हें इमरजेंसी के दौरान 21 महीने की जेल हो गई। हम भाई-बहनों के लिए वो सबसे मुश्किल दौर था। क्योंकि हमारे परिवार से जुड़े सभी फैसले भैया ही लिया करते थे। कौन क्या पढ़ेगा, क्या करेगा, किसकी शादी कहां होगी? खैर तब हमारी बुआ ने हमें संभाल लिया।

1984 एक भाई की मौत हो गई। 14 साल बाद एक और भाई का साथ छूट गया। इस मुश्किल दौर में भी हमने हौसला नहीं खोया।

1984 एक भाई की मौत हो गई। 14 साल बाद एक और भाई का साथ छूट गया। इस मुश्किल दौर में भी हमने हौसला नहीं खोया।

पिता जी पुराने कांग्रेसी थे। वे भैया से मिलने के लिए कभी जेल नहीं गए। हम भाई-बहन उनसे मिलने जाते थे। जेल से बाहर आने के बाद जब पहली दफा जनता पार्टी की सरकार बनी तो भैया को युवा मोर्चा का अध्यक्ष बनाया गया। उसके बाद वे राजनीति में आगे बढ़ते गए।

साल 1982 में पिता जी की मौत हो गई। अब गांव में खेती भी भैया को ही देखनी पड़ती थी। वे सुबह 10 बजे घर से निकल जाते और रात को 11 बजे घर आते थे। इसके बाद भैया की मदद के लिए मैं आगे बढ़ा। जो भी मुझसे हो पाता था, आर्थिक तौर पर मदद करता था, ताकि उन्हें राजनीति के लिए कुछ वक्त मिल सके। धीरे-धीरे भैया ने हम सबकी शादियां कर दीं। इस तरह हमारा परिवार ठीक-ठाक स्थिति में आगे बढ़ रहा था।

फिर 1984 एक भाई की मौत हो गई। 14 साल बाद एक और भाई का साथ छूट गया। इस मुश्किल दौर में भी हमने हौसला नहीं खोया। भाभी हमारी खूब मदद करती थीं। वे मां की तरह हमारी देखभाल करती थीं।

धीरे-धीरे खर्च बढ़ने लगा, तो मैंने ठेकेदारी का काम शुरू कर दिया। भैया की जान-पहचान के चलते मेरा काम भी अच्छा चला। इस तरह घर का गुजारा चल रहा था और भैया राजनीति में अपना वक्त दे पा रहे थे। 1998 में वो भी दिन आया जब भैया को राज्यमंत्री बना दिया गया। हर रोज उनसे 200-300 लोग मिलने आते थे। जो भी उनसे मदद मांगने आता, उसके लिए वे हनुमान बनकर खड़े हो जाते थे। कानपुर और आसपास के जिलों में उनकी तूती बोलती थी। वे इन जिलों में सामाजिक और राजनीतिक प्रभाव रखते थे।

वाजपेयी जी प्रेम से उन्हें कालिया कहते थे, क्योंकि भैया का रंग गहरा था। पार्टी में भी उनकी साख थी और प्रशासन भी उनकी किसी बात को काटता नहीं था। मुझे याद है तब विधानसभा के चुनाव थे। उसी बीच नगर पंचायत और नगर पालिका के चुनाव भी होने थे। जिला अध्यक्ष होने के नाते भैया को अधिकार था कि वे नगर पालिका और नगर पंचायत अध्यक्ष के प्रत्याशी घोषित कर सकें। उन्होंने शिवली नगर पंचायत से लल्लन वाजपेयी को प्रत्याशी घोषित किया। लल्लन वाजपेयी जीत भी गए।

सिर्फ कानपुर में ही नहीं, आसपास के जिलों में भी भैया का राजनीतिक प्रभाव था। रोज 200-300 लोग उनसे मिलने आते थे।

सिर्फ कानपुर में ही नहीं, आसपास के जिलों में भी भैया का राजनीतिक प्रभाव था। रोज 200-300 लोग उनसे मिलने आते थे।

लल्लन वाजपेयी और विकास दुबे का गांव आसपास का था। दोनों में मित्रता भी थी, लेकिन नेता बनने के बाद लल्लन वाजपेयी ने विकास दुबे की मनमानी का विरोध करना शुरू कर दिया। लल्लन को राजनीति करनी थी। वे नहीं चाहते थे कि विकास दुबे शिवली इलाके से उगाही करे या किसी को जमीन और पैसे के लिए परेशान करे, लेकिन शिवली विकास दुबे की उगाही के मुख्य केंद्रों में से एक था। इस बात पर दोनों में दुश्मनी हो गई।

उसके बाद यूपी विधानसभा के चुनाव घोषित हो गए। भैया भी प्रत्याशी थे, लेकिन वे बसपा प्रत्याशी से हार गए। उसकी जीत का जश्न मनाया जा रहा था। विकास दुबे जुलूस लेकर निकल रहा था कि रास्ते में उसे लल्लन वाजपेयी का भाई दिखा। विकास दुबे ने उसे गोली मार दी, हालांकि तत्काल उसे अस्पताल ले जाया गया और वो बच गया। लल्लन ने विकास दुबे के खिलाफ FIR करवाई। उसके बाद दोनों के बीच दुश्मनी और गहरी हो गई। उसके बाद विकास दुबे ने कई हत्याएं की।

12 अक्टूबर 2001 की बात है कि भैया को लल्लन का फोन आया कि उसका घर विकास दुबे ने चारों ओर से घेर रखा है और वह उसे मार देगा। भैया ने न आव देखा न ताव और ऐंबैस्डर गाड़ी उठाई और चल दिए। वे सीधा शिवली थाने पहुंचे। वहां विकास दुबे भी पहुंच गया और पुलिस वालों की मौजूदगी में उसने भैया की छाती में 5 गोलियां दाग दी। मौके पर ही भैया की मौत हो गई। उसके बाद वहां भगदड़ मच गई, पुलिस वाले भी भाग गए।

भैया मेरे लिए मां-बाप भाई सब थे, उनके जाने के बाद से सब खत्म हो गया। मैं बीमार रहने लगा। ये तो भगवान की कृपा थी कि उन्होंने हम सब की शादी कर दी थी, वरना पता नहीं भैया के जाने के बाद किसी की शादी होती भी कि नहीं। मेरा काम में मन नहीं लगता था, धीरे-धीरे काम डाउन होने लगा। हमने डर की वजह से घर से बाहर निकलना छोड़ दिया। 8 साल घर से बाहर नहीं निकले कि कहीं विकास दुबे हमारी हत्या न कर दे।

जब मुझे पता चला कि विकास दुबे का एनकाउंटर हो गया, तब मुझे सुकून मिला। उसकी वजह से परिवार का बहुत नुकसान हुआ।

जब मुझे पता चला कि विकास दुबे का एनकाउंटर हो गया, तब मुझे सुकून मिला। उसकी वजह से परिवार का बहुत नुकसान हुआ।

घर बैठे-बैठे सभी जमा पूंजी खत्म हो गई। हालात इस कदर खराब हो गए कि बच्चों के दूध के लिए भी पैसे नहीं होते थे। घर में क्या खाना बनेगा और सब्जी कहां से आएगी, कुछ समझ नहीं आता था। कभी बाहर निकलते भी तो सिक्योरिटी के साथ ही जाते थे।

खैर 8 साल बाद जब लगा कि अब हालात नहीं संभलेंगे, तो बाहर निकलने लगा। मन में यही सवाल था कि ज्यादा से ज्यादा क्या होगा विकास दुबे मार देगा न, जो होगा देखा जाएगा। फिर मैंने सिक्योरिटी वापस कर दी और घर से बाहर निकलने लगा। भैया के दोस्तों के यहां जाना शुरू कर दिया।

उनके एक दोस्त इंजीनियर थे। एक दिन उनके यहां बैठा था तो उन्होंने पूछा कि क्या कर रहे हो, मैंने कहा कि कुछ नहीं। उसने अपने पैसे भरकर मेरा ठेकेदारी का लाइसेंस रिन्यू करवाया। इसके बाद मैंने फिर से ठेकेदारी शुरू की।

कई दफा शादियों या दूसरे कार्यक्रमों में विकास दुबे से मेरा सामना हुआ। मुझे उससे घृणा होती थी, नफरत होती थी उसे देखकर। मुझे लगता था कि इसकी वजह से मेरे परिवार का जो नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई आज तक नहीं हो सकी है। जी करता था उसे गोलियों से भून दूं। फिर एक दिन विकास दुबे के एनकाउंटर की खबर आई, उस दिन मुझे चैन मिला, सुकून आया, शांति आई।

मनोज शुक्ला यूपी के दिवंगत दर्जा प्राप्त राज्यमंत्री संतोष शुक्ला के भाई हैं। साल 2001 में गैंगस्टर विकास दुबे ने बीच थाने में ही संतोष शुक्ला की हत्या कर दी थी। मनोज ने ये सारी बातें भास्कर रिपोर्टर मनीषा भल्ला से शेयर कीं…

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