कल्याण सिंह: बीजेपी न छोड़ी होती तो अटल-आडवाणी के बाद पार्टी के सबसे बड़े नेता होते – BBC हिंदी

  • समीरात्मज मिश्र
  • लखनऊ से, बीबीसी हिन्दी डॉट कॉम के लिए

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उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और राजस्थान के पूर्व राज्यपाल कल्याण सिंह का शनिवार को निधन हो गया. वो लंबे समय से बीमार थे और लखनऊ के एक अस्पताल में भर्ती थे.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ समेत भारतीय जनता पार्टी और दूसरे दलों के कई नेताओं ने उनके निधन पर शोक जाहिर किया है.

योगी आदित्यनाथ ने उत्तर प्रदेश में तीन दिन के राजकीय शोक और 23 अगस्त को सार्वजनिक अवकाश का एलान किया है. कल्याण सिंह ने 89 वर्ष की उम्र में आखिरी सांस ली.

कल्याण सिंह ने प्रखर हिन्दूवादी नेता के तौर पर उस समय अपनी राजनीति की शुरुआत की थी, जब उत्तर प्रदेश से लेकर पूरे देश में कांग्रेस पार्टी का वर्चस्व था.

जनसंघ से जनता पार्टी और फिर भारतीय जनता पार्टी के नेता के तौर पर वे विधायक और यूपी के मुख्यमंत्री भी बने, लेकिन राजनीतिक महत्वाकांक्षा ने उनकी हिन्दूवादी नेता की छवि को तो धूमिल किया ही, राजनीति में उनके असमय ढलान का कारण भी बनी.

अलीगढ़ ज़िले की अतरौली तहसील के मढ़ौली गाँव में पाँच जनवरी 1935 को एक साधारण किसान परिवार में जन्मे कल्याण सिंह बचपन में ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ गये थे.

उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने अध्यापक की नौकरी की और राजनीति भी जारी रखी.

वे साल 1967 में जनसंघ के टिकट पर अतरौली सीट से पहली बार विधानसभा पहुँचे और साल 1980 तक लगातार इस सीट से जीतते रहे.

इस बीच, जनसंघ का जनता पार्टी में विलय हो गया और साल 1977 में उत्तर प्रदेश में जनता पार्टी की सरकार बनने पर उन्हें राज्य का स्वास्थ्य मंत्री बनाया गया.

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राम-भक्त की छवि

साल 1980 के विधानसभा चुनाव में कल्याण सिंह को हार का सामना करना पड़ा.

कल्याण सिंह के बेहद क़रीबी रहे और हाल ही में केंद्रीय मंत्री बने बीजेपी नेता बीएल वर्मा बताते हैं, “भारतीय जनता पार्टी का साल 1980 में जब गठन हुआ तो कल्याण सिंह को पार्टी का प्रदेश महामंत्री बनाया गया. अयोध्या आंदोलन के दौरान उन्होंने गिरफ़्तारी देने के साथ ही कार्यकर्ताओं में नया जोश भरने का काम किया था.”

“इस आंदोलन के दौरान ही उनकी छवि राम-भक्त की हो गई और ना सिर्फ़ यूपी में बल्कि पूरे देश में उनकी लोकप्रियता बढ़ती गई. इसीलिए जब साल 1991 में बीजेपी ने पहली बार यूपी में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई तो उन्हें मुख्यमंत्री बनाया गया.”

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उत्तर प्रदेश में बीजेपीसरकार बनाने में अहम रोल

नब्बे के दशक की शुरुआत में राजनीति का जो दौर था, उसे मण्डल और कमण्डल यानी आरक्षण और राम मंदिर आंदोलन के तौर पर जाना जाता है.

देश भर में एक ओर मण्डल आयोग की सिफ़ारिशों का समर्थन और विरोध चल रहा था, तो दूसरी ओर अयोध्या में राम-जन्मभूमि के लिए आंदोलन चल रहा था.

30 अक्टूबर, 1990 को मुलायम सिंह यादव के यूपी के मुख्यमंत्री रहते हुए अयोध्या में कारसेवकों पर गोली चलाई गई जिसमें कई कारसेवकों की मौत हो गई. बीजेपी ने उनका मुक़ाबला करने के लिए कल्याण सिंह को आगे किया.

कल्याण सिंह ने महज़ एक साल में बीजेपी को उस स्थिति में ला दिया कि पार्टी ने 1991 में पूर्ण बहुमत की सरकार बना ली.

मुख्यमंत्री बनने के बाद कल्याण सिंह ने अपने मंत्रिमंडल के सहयोगियों के साथ अयोध्या का दौरा किया और राम मंदिर का निर्माण करने के लिए शपथ ली थी.

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लखनऊ में वरिष्ठ पत्रकार योगेश मिश्र कहते हैं कि कल्याण सिंह का पहला कार्यकाल सिर्फ़ बाबरी मस्जिद विध्वंस के लिए ही नहीं, बल्कि एक सख़्त, ईमानदार और कुशल प्रशासक के तौर पर भी याद किया जाता है.

योगेश मिश्र याद करते हैं, “कल्याण सिंह ने ही पहली बार हिन्दुत्व की राजनीति को परवान चढ़ाया. वो ईमानदार नेता थे. पिछड़ा वर्ग से थे लेकिन उन्हें हर जाति का वोट मिलता था. बाबरी मस्जिद विध्वंस की घटना उनके कार्यकाल की निस्संदेह एक बड़ी घटना थी लेकिन क़रीब डेढ़ साल का उनका कार्यकाल एक सख़्त प्रशासक के तौर पर याद किया जाता है.”

“नक़ल अध्यादेश एक बड़ा फ़ैसला था जिसकी वजह से सरकार के ख़िलाफ़ नाराज़गी भी बढ़ी लेकिन बोर्ड परीक्षाओं में पहली बार नक़लविहीन परीक्षाएं हुईं. समूह ‘ग’ की भर्तियों में बेहद पारदर्शिता बरती गई और कल्याण सिंह का यह कार्यकाल उनकी ईमानदारी के लिए भी याद रखा जाता है.”

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पहले कार्यकाल जैसा असर नहीं

छह दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद कल्याण सिंह की सरकार बर्ख़ास्त कर दी गई. लेकिन इसके बाद यूपी में कमण्डल की राजनीति भारी पड़ी और बीजेपी को सत्ता में वापस आने के लिए पाँच साल तक संघर्ष करना पड़ा.

साल 1997 में कल्याण सिंह यूपी के दोबारा मुख्यमंत्री बने लेकिन इस बार वो पहले कार्यकाल जैसी छाप नहीं छोड़ पाए.

इस बार वो महज़ दो साल ही मुख्यमंत्री रह पाये और उनकी पार्टी ने ही उन्हें हटाकर दूसरा मुख्यमंत्री बैठा दिया.

पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से मतभेद इतने बढ़ गये कि कल्याण सिंह ने उसी साल भारतीय जनता पार्टी से इस्तीफ़ा दे दिया और बाद में राष्ट्रीय क्रांति पार्टी नाम से नई पार्टी बनाई.

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अगर बीजेपी ना छोड़ी होती तो…

वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं कि कल्याण सिंह ने ना सिर्फ़ बीजेपी से नाता तोड़ा, बल्कि राम मंदिर के मुद्दे से भी तिलांजलि दे दी.

उनके मुताबिक़, “वे प्रखर हिन्दूवादी थे. उन्होंने दो बार बीजेपी ना छोड़ी होती और दल-बदल का ऐसा तरीक़ा ना अपनाया होता तो आज के दौर में वो बीजेपी के सबसे बड़े नेता होते. उस दौर में भी अटल-आडवाणी के बाद वे तीसरे नंबर के नेताओं में शुमार होते थे. कल्याण सिंह ने पार्टी छोड़कर अपना भले ही कोई ख़ास फ़ायदा ना किया हो, लेकिन बीजेपी का बेड़ा ग़र्क़ कर दिया था.”

“बीजेपी को सत्ता में आने के लिए लगभग डेढ़ दशक का इंतज़ार करना पड़ा. ख़ुद कल्याण सिंह भी हिन्दूवादी नेता की बजाय केवल लोध समुदाय के नेता बनकर रह गये. यहाँ तक कि जब वो बीजेपी में वापस भी आये, तब भी उनकी यही छवि बनी रही. उन्हें उन्हीं क्षेत्रों में प्रचार के लिए भेजा गया जहाँ लोध प्रभावी हैं.”

बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता ने नाम ना छापने की शर्त पर बताया कि कल्याण सिंह के राजनीतिक पतन की शुरुआत तभी हो गई थी, जब से उन्होंने समाजवादी पार्टी के साथ नज़दीकी बनाई, मिलकर चुनाव लड़ा और फिर साथ में सरकार बनाई.

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वाजपेयी का अपमान

उनके मुताबिक़, “अटल बिहारी वाजपेयी उस वक़्त प्रधानमंत्री थे. उनका सम्मान बीजेपी के ही नहीं बल्कि विरोधी दलों के लोग भी करते थे, लेकिन कल्याण सिंह ने उनका सार्वजनिक तौर पर अपमान किया. अपने लोगों के साथ बातचीत में उनके लिए बेहद अपमानजनक भाषा का भी इस्तेमाल करते थे.”

“उस वक़्त उन्हें ना भी हटाया जाता, तो भी बीजेपी की छवि काफ़ी ख़राब हो चुकी थी. वाजपेयी के लिए उनके कहे गए तीन शब्द उस वक़्त काफ़ी चर्चा में थे- भुलक्कड़, बुझक्कड़, पियक्कड़.”

उस वक़्त के बीजेपी के कई नेताओं और पत्रकारों का मानना है कि कल्याण सिंह के राजनीतिक ढलान की वजह उन्हीं की पार्टी की एक नेता कुसुम राय भी थीं जो समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय क्रांति पार्टी की मिलीजुली सरकार में कैबिनेट मंत्री थीं.

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नरेंद्र मोदी को लंबे इंतज़ार के बाद दिया था समय लेकिन…

बीजेपी के एक नेता बताते हैं कि “उस वक़्त नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक थे. संघ ने उन्हें कल्याण सिंह से बातचीत के लिए भेजा. कई दिनों बाद कल्याण सिंह ने उन्हें मिलने का समय दिया, वो भी कुछ लोगों के बीच में. नरेंद्र मोदी ने अकेले में बात करने को कहा तो उन्होंने मना कर दिया. नरेंद्र मोदी ने कुसुम राय का मामला उठाया, तो उन्होंने उसे बेहद अनमने ढंग से लिया और उनके सामने ही अटल बिहारी वाजपेयी के लिए अपमानजनक भाषा का प्रयोग किया.”

हालांकि, साल 2004 में कल्याण सिंह की जब बीजेपी में वापसी हुई तो उसके पीछे भी अटल बिहारी वाजपेयी ही थे.

पार्टी के वरिष्ठ नेता प्रमोद महाजन ने इसके लिए कोशिश की, कल्याण सिंह बीजेपी में दोबारा शामिल हुए. पार्टी ने साल 2007 का विधानसभा चुनाव उनके नेतृत्व में लड़ा लेकिन कोई ख़ास सफलता नहीं मिली.

सिद्दार्थ कलहंस कहते हैं, “बीजेपी छोड़ने के बाद कल्याण सिंह ख़ुद भी लगभग अवसाद की स्थिति में आ गए थे. बीजेपी के बहुत ही कम लोगों ने उनके साथ पार्टी छोड़ी और बाद में और भी बहुत कम लोग उनके साथ रह गये.”

“एक बार चुनाव प्रचार के लिए वो निकल रहे थे. हेलीकॉप्टर से प्रचार करने जाना चाहते थे. लेकिन पार्टी में ऐसा कोई भी व्यक्ति सामने नहीं आया जो उनके लिए हेलीकॉप्टर का इंतज़ाम कर सके. आख़िरकार उन्हें भी समझ आ गया था कि जिस पार्टी ने उन्हें इतनी शोहरत दी, उसे छोड़कर उन्हें कुछ हासिल नहीं हुआ.”

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रूठना-मनाना… जाना और वापस आना

साल 2009 में कल्याण सिंह एक बार फिर बीजेपी से नाराज़ होकर पार्टी से बाहर हो गए. एक बार फिर समाजवादी पार्टी से उन्होंने नज़दीकियाँ बढ़ाईं.

सपा की मदद से उन्होंने एटा से लोकसभा का निर्दलीय चुनाव भी जीता, लेकिन कल्याण सिंह के इस साथ ने समाजवादी पार्टी को काफ़ी नुक़सान पहुँचाया और फिर सपा ने उनसे दूरी बना ली.

साल 2010 में अपने 77वें जन्मदिन यानी पाँच जनवरी को कल्याण सिंह ने जन क्रांति पार्टी नाम से एक नई पार्टी बनाने की घोषणा की और अपने बेटे राजबीर सिंह को पार्टी का अध्यक्ष बनाया.

साल 2012 में पार्टी ने विधानसभा चुनाव भी लड़ा लेकिन कुछ ख़ास सफलता नहीं मिली.

अगले ही साल 2013 में कल्याण सिंह एक बार फिर बीजेपी में शामिल हुए और 2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी के पक्ष में जमकर प्रचार किया.

साल 2014 में बीजेपी को लोकसभा की 80 में से 71 सीटों पर जीत हासिल हुई थी.

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कल्याण सिंह को साल 2014 में ही राजस्थान का राज्यपाल बना दिया गया था.

कार्यकाल पूरा होने के बाद उन्होंने एक बार फिर बीजेपी की सदस्यता ले ली थी, लेकिन उसके बाद पार्टी ने उन्हें कोई ज़िम्मेदारी नहीं दी.

हालांकि उनके बेटे और पोते को बीजेपी ने सम्मानजनक जगह दी. कल्याण सिंह के बेटे राजवीर सिंह सांसद हैं, तो राजवीर के बेटे संदीप सिंह उत्तर प्रदेश की योगी सरकार में मंत्री हैं.

सिद्धार्थ कलहंस के मुताबिक़, “कल्याण सिंह ने बीजेपी में सम्मानजनक वापसी तो कर ली, लेकिन अपने समर्थकों के बीच उनकी जो कट्टर हिन्दूवादी नेता की छवि पहले थी, वह सम्मान उन्हें दोबारा कभी नहीं मिला.”

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