अमर उजाला रिसर्च टीम, नई दिल्ली
Published by: Jeet Kumar
Updated Tue, 17 Aug 2021 07:10 AM IST
अफगानिस्तान में तालिबान
– फोटो : twitter
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इसके तहत तालिबान को शांति और स्थिरता का वादा निभाना था, लेकिन इसे पूरा न करने के बावजूद अमेरिका वापसी में जुटा रहा। इससे तालिबान का दुस्साहस बढ़ा और वह अफगानिस्तान में घुसने लगा। वहीं, पांच माह पहले तो अमेरिका ने खुद ही हार मान ली।
तालिबान ने दुनिया को स्तब्ध करने वाली तेजी के साथ अफगानिस्तान को फिर अपने कब्जे में ले लिया है। पिछले साल फरवरी में अफगान सरकार को किनारे करके अमेरिकी द्वारा किए गए शांति समझौते के साथ ही कट्टर इस्लामी गुट की वापसी का रास्ता साफ हो गया था।
दोहा समझौता यानी अमेरिका की हार
दोहा समझौते के बावजूद तालिबान ने संघर्ष विराम व राजनीतिक हल पर कोई वादे नहीं निभाए। फिर भी अमेरिका अपनी फौज और स्टाफ की वापसी करता रहा। इससे तालिबान की हिम्मत बढ़ी।
हालांकि इलाकों पर कब्जे के लिए सबसे बड़ी चुनौती अमेरिकी वायुसेना थी। पर अमेरिकी सैनिकों को निशाना न बनाने के वादे के बाद उस पर हवाई हमले बंद हो गए थे। यहीं से तालिबानियों ने संगठित होना शुरू किया। उसे अफगान सेना पर हमलों और अपनी आपूर्तियां बढ़ाने का मौका मिला। साथ ही चीन, रूस और ईरान जैसे देशों से भी बातचीत कर ली।
राजनीतिक हल नहीं ढूंढ पाए गनी
2014 और 2019 के चुनाव विवादास्पद रहे। लेकिन अमेरिकी दखल से राष्ट्रपति गनी की सरकार चलती रही। लेकिन गनी मजबूत राजनीतिक प्रशासन खड़ा नहीं कर पाए। अमेरिकी सेना लौटते ही उनका नियंत्रण खोने लगा।
हवाई रीढ़ टूटते आसान हुई राह
अफगान सरकार ने गांवों में जो सैन्य चौकियां स्थापित कर रखी थीं, उन्हें अमेरिकी वायुसेना से मदद बंद हो गई। अब तालिबान अफगानी पायलटों को निशाना बनाने लगा। गांव और शहरों को कब्जाने के बाद उसने काबुल को घेर लिया।
छह अगस्त को निर्णायक मोड़
तालिबान ने जरांज पर कब्जा पर सेना के सामने आत्मसमर्पण या लड़ाई का विकल्प रखा। कई महीनों से वेतन व आपूर्ति को तरस रहे फौजी लड़ाई के लिए तैयार नहीं हुए। कुछ जगह तो तालिबानियों ने फौजियों को खर्च के भी पैसे दिए।
आठ दिन बाद काबुल कब्जाया
अफगानिस्तान के अधिकांश प्रांतों पर तालिबान का कब्जा हो गया। 14 अगस्त को तालिबान काबुल में घुसने की तैयारी में था, तब खुद फौजियों को मालूम था कि वे हार चुके हैं।