केंद्र सरकार की ओर से कृषि सुधार बिल कहे जा रहे तीन में से दो विधेयक रविवार को राज्यसभा में ध्वनि मत से पारित हो गए. अब इस पर राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अंतिम मुहर लगनी बाकी है जिसके बाद यह क़ानून बन जाएगा.
दो बिल जो संसद से पास हो चुके हैं उनमें से एक कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक, 2020, और दूसरा कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) क़ीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर क़रार विधेयक, 2020 है.
इन विधेयकों के ख़िलाफ़ हरियाणा-पंजाब के किसान कई बार प्रदर्शन कर चुके हैं और इसको लेकर किसानों की अलग-अलग आशंकाएं हैं.
किसानों का मानना है कि यह विधेयक धीरे-धीरे एपीएमसी (एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केट कमिटी) यानी आम भाषा में कहें तो मंडियों को ख़त्म कर देगा और फिर निजी कंपनियों को बढ़ावा देगा जिससे किसानों को उनकी फ़सल का उचित मूल्य नहीं मिलेगा.
हालांकि, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई बार यह बात कह चुके हैं कि सरकार MSP (न्यूनतम समर्थन मूल्य) समाप्त नहीं कर रही है और न ही सरकारी ख़रीद को बंद कर रही है.
मैं पहले भी कहा चुका हूं और एक बार फिर कहता हूं:
MSP की व्यवस्था जारी रहेगी।
सरकारी खरीद जारी रहेगी।
हम यहां अपने किसानों की सेवा के लिए हैं। हम अन्नदाताओं की सहायता के लिए हरसंभव प्रयास करेंगे और उनकी आने वाली पीढ़ियों के लिए बेहतर जीवन सुनिश्चित करेंगे।
— Narendra Modi (@narendramodi) September 20, 2020
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वहीं, इन विधेयकों को लेकर विपक्ष केंद्र की मोदी सरकार पर हमलावर है और इसके कारण एनडीए के सबसे पुराने साथी अकाली दल ने सरकार में अपने मंत्री पद को भी त्याग दिया है.
कांग्रेस नेता राहुल गांधी और उनकी पार्टी लगातार इस बिल का विरोध करती आई है. राहुल गांधी ने यह भी ट्वीट किया कि प्रधानमंत्री मोदी किसानों को पूंजीपतियों का ‘ग़ुलाम’ बना रहे हैं.
मोदी सरकार के कृषि-विरोधी ‘काले क़ानून’ से किसानों को:
1. APMC/किसान मार्केट ख़त्म होने पर MSP कैसे मिलेगा?
2. MSP की गारंटी क्यों नहीं?मोदी जी किसानों को पूँजीपतियों का ‘ग़ुलाम’ बना रहे हैं जिसे देश कभी सफल नहीं होने देगा।#KisanVirodhiNarendraModi
— Rahul Gandhi (@RahulGandhi) September 20, 2020
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निजी कंपनियां कैसे आएंगी?
आइये जानते हैं कि कैसे इन बिलों के कारण भविष्य में निजी कंपनियों की मनमानी को लेकर आशंकाएं खड़ी हो रही हैं.
पहला बिल कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) विधेयक, 2020 है जो एक ऐसा क़ानून होगा जिसके तहत किसानों और व्यापारियों को एपीएमसी की मंडी से बाहर फ़सल बेचने की आज़ादी होगी.
इसमें यह बात याद रखने वाली है कि सरकार का कहना है कि वह एपीएमसी मंडियां बंद नहीं कर रही है बल्कि किसानों के लिए ऐसी व्यवस्था कर रही है जिसमें वह निजी ख़रीदार को अच्छे दामों में अपनी फ़सल बेच सके.
दूसरा बिल कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) क़ीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर क़रार विधेयक, 2020 है. यह क़ानून कृषि क़रारों पर राष्ट्रीय फ़्रेमवर्क के लिए है.
ये कृषि उत्पादों की बिक्री, फ़ार्म सेवाओं, कृषि बिज़नेस फ़र्मों, प्रोसेसर्स, थोक विक्रेताओं, बड़े खुदरा विक्रेताओं और निर्यातकों के साथ किसानों को जुड़ने के लिए सशक्त करता है.
आसान शब्दों में कहें तो कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग में किसानों के आने के लिए यह एक ढांचा मुहैया कराएगा.
निजी कंपनियों के लिए एमएसपी?
अंबाला के एक किसान हरकेश सिंह कहते हैं कि सरकार ने जो भी क़ानून में कहा है वैसा तो पहले भी होता रहा है, कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग और अपनी फ़सलों को बाहर बेचने जैसी चीज़ें पहले भी होती रही हैं और यह बिल सिर्फ़ ‘अंबानी-अडानी’ जैसे व्यापारियों को लाभ देने के लिए लाया गया है.
वे कहते हैं, “किसान अब कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग करता है तो कोई विवाद होने पर वह सिर्फ़ एसडीएम के पास जा सकता है जबकि पहले वह कोर्ट जा सकता था. इस तरह की पाबंदी क्यों लगाई गई. इससे तो लगता है कि सरकार किसानों को बांध रही है और कॉर्पोरेट कंपनियों को खुला छोड़ रही है. उन्हें अब किसी फ़सल की ख़रीद के लिए कोई लाइसेंस की ज़रूरत नहीं है.”
वहीं, किशान शक्ति संघ के अध्यक्ष और कृषि मामलों के जानकार चौधरी पुष्पेंद्र सिंह इन विधेयकों से बहुत ख़फ़ा नज़र नहीं आते हैं. वो कहते हैं कि इस क़ानून के बाद कोई भी कहीं भी और किसी को भी अपनी फ़सल बेच सकता है जो अच्छा है लेकिन इसमें एमएसपी की व्यवस्था कहां पर है?
वो कहते हैं, “मंडी के बाहर एमएसपी की व्यवस्था न होना ही सबसे बड़ा विवाद का बिंदु है. तीनों क़ानूनों से कोई बड़ी समस्या नहीं है लेकिन इसमें मंडी के बराबर कोई दूसरी व्यवस्था बनाने का प्रावधान नहीं किया गया है. अगर कोई ‘प्राइवेट प्लेयर’ इस क्षेत्र में उतर रहा है तो उसके लिए भी एमएसपी की व्यवस्था होनी चाहिए. उदाहरण के रूप में अगर गेहूं के लिए 1925 रुपये प्रति क्विंटल की व्यवस्था मंडी के लिए की जाए तो वही व्यवस्था निजी कंपनियों के लिए भी होनी चाहिए.”
भारतीय खाद्य निगम की कार्य कुशलता और वित्तीय प्रबंधन में सुधार के लिए बनाई गई शांता कुमार समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि सिर्फ़ 6 फ़ीसदी किसान ही एमएसपी पर अपनी फ़सल बेच पाते हैं. इसमें भी हरियाणा और पंजाब के किसानों की बड़ी संख्या है जिस कारण अधिक प्रदर्शन भी इन्हीं दो राज्यों में हो रहे हैं.
चौधरी पुष्पेंद्र सिंह कहते हैं कि देश में 23 फ़सलों पर ही एमएसपी है अगर एमएसपी का प्रावधान निजी कंपनियों के लिए किया गया होता तो इससे देश के सभी राज्यों के किसानों को फ़ायदा पहुंचता और आगे उनके शोषण होने की आशंका कम हो जाती.
बीजेपी किसान मोर्चा के अध्यक्ष वीरेंद्र सिंह मस्त कहते हैं कि मंडी का क़ानून नहीं बदला गया है और मंडी में काम करने वाले लोगों और आढ़तियों ने ही किसानों को अपने यहां फ़सल बेचने के लिए मजबूर कर रखा था.
“देश का किसान अब कहीं भी जाकर अपनी फ़सल बेच सकता है. आढ़तियों के पैसे के दम पर प्रदर्शन करके देश को गुमराह किया जा रहा है. लाखों किसान इसकी प्रशंसा कर रहे हैं.”
मंडी सिस्टम ख़त्म कर देंगी कंपनियां?
किसान हरकेश सिंह मंडी सिस्टम समाप्त होने का डर जताते हैं. वो कहते हैं कि एक साल निजी कंपनियां अच्छे दामों में आपसे फ़सल ख़रीदेंगी, उसके बाद जब मंडियां बंद हो जाएंगी तो कॉर्पोरेट कंपनियां मनमाने दामों पर फ़सल की ख़रीद करेंगी.
हरकेश सिंह बिहार राज्य का हवाला देते हुए कहते हैं कि वहां मंडी सिस्टम समाप्त होने के बाद किसानों की हालत ठीक नहीं है और उनसे मनमाने दामों पर फ़सल ख़रीदी जाती है, सरकार अगर किसानों की हितैषी है तो वह किसानों से सीधे फ़सल लेकर निजी कंपनियों को बेचे.
मंडी सिस्टम ख़त्म करने की आशंका पर चौधरी पुष्पेंद्र सिंह की अलग राय है. वो कहते हैं कि खाद्य सुरक्षा क़ानून के तहत देश के 80 करोड़ लोगों को राशन दिया जाता है और उस राशन को तो किसानों से ही ख़रीदा जाता है, सरकार कल भी इस राशन को खरीदेगी तो मंडियां कैसे बंद हो जाएंगी.
बिहार में 2006 में एपीएमसी एक्ट को ख़त्म कर दिया गया था. इससे अनुमान लगाया गया था कि किसानों को राज्य में अपनी फ़सल अपने मनपंसद दामों में बेचने में मदद मिलेगी.
बिहार का हवाला देते हुए कृषि विशषेज्ञ देविंदर शर्मा कहते हैं कि अगर किसानों को लेकर बाज़ार की हालत ठीक होती तो अभी तक बिहार के हालात क्यों नहीं सुधरे हैं, वहां पर प्राइवेट मंडियां, निवेश आदि की बात कही गई थी लेकिन हर साल वहां के किसान अपनी फ़सल लाकर पंजाब-हरियाणा में बेचते हैं.
एपीएमसी की मंडियां ख़त्म हो जाएंगी, एमएसपी ख़त्म हो जाएगी, ऐसी शंकाओं पर देविंदर शर्मा कहते हैं कि यह ‘ज़ोर का झटका धीरे से’ है क्योंकि एपीएमसी मंडियां ख़त्म होने की कगार पर पहुंच चुकी हैं.
देविंदर शर्मा एक उदाहरण का हवाला देते हुए कहते हैं, “पंजाब में सबसे बड़ा मंडियों का नेटवर्क है. वहां पर जो बासमती चावल के निर्यातक हैं वे यह अब कह रहे हैं कि जब तक मंडियों का 4.50 फ़ीसदी टैक्स हटा नहीं दिया जाता तब तक वे सामान बाहर से ख़रीदेंगे क्योंकि बाहर कोई टैक्स नहीं है. इसी तरह कपास और दूसरे सामान के निर्यातक कह चुके हैं कि वे मंडी से सामान नहीं ख़रीदेंगे. मंडी से टैक्स नहीं आएगा तो सरकार को कमाई नहीं होगी और कमाई नहीं होगी तो मंडियों का रखरखाव बंद हो जाएगा.”
वे कहते हैं, “प्राइवेट सेक्टर यही चाहता है कि जब मंडियां समाप्त हो जाए तो उसकी पकड़ मज़बूत हो जाए, किसानों का डर भी यही है. जब मंडियां ख़त्म हो जाएंगी तो एमएसपी भी ख़त्म हो जाएगी.”
एमएसपी देने से क्या होगा?
भारत में किसानों की हालत किसी से छिपी हुई नहीं है. वे बेहद मुश्किल परिस्थितियों में खेती करते हैं और फिर उनको सही मूल्य भी नहीं मिल पाता है.
2015-16 में हुई कृषि गणना के अनुसार देश के 86 फ़ीसदी किसानों के पास छोटी जोत की ज़मीन है या यह वे किसान हैं जिनके पास 2 हेक्टेयर से कम ज़मीन है.
कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा कहते हैं कि प्राइवेट प्लेयर्स को कृषि क्षेत्र में लाने की योजना जब अमरीका और यूरोप में फ़ेल हो गई तो भारत में कैसे सफल होगी, वहां के किसान तब भी संकट में हैं जबकि सरकार उन्हें सब्सिडी भी देती है.
क़ानूनी रूप से एमएसपी सभी के लिए लागू करने को देविंदर शर्मा भी सही मानते हैं.
वो कहते हैं, “प्राइवेट प्लेयर्स कृषि क्षेत्र में ज़रूर आएं लेकिन हम ऐसा क्यों नहीं करते कि एमएसपी को एक क़ानूनी उपाय बना दिया जाए. निजी कंपनियां कह रही हैं कि वो किसानों को एमएसपी से ज़्यादा दाम देंगे. सरकार, अर्थशास्त्री भी यही कह रहे हैं तो फिर इसे क़ानूनी रूप क्यों नहीं पहना दिया जाता कि इतने से कम दाम में किसी फ़सल की ख़रीदारी नहीं होगी.”
“एमएसपी को अगर क़ानूनी जामा पहना दिया गया तो किसान ख़ुश रहेगा. अमरीका में अगर किसानों के लिए ओपन मार्केट इतना अच्छा होता तो वहां पर किसानों को सब्सिडी क्यों दी जा रही होती.”