आर्मी लेफ्टिनेंट कर्नल सीमा सिंह बोलीं- पुरुष हमारे खिलाफ नहीं, सरकार उनके कंधे पर बंदूक रखकर चला रही थी



नई दिल्ली. थलसेना में महिला अफसरों को कई सालों के संघर्ष के बाद आखिरकार बराबरी का हक मिल गया। सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को एक अहम फैसले में थलसेना में महिला अफसरों की स्थाई कमीशन देने का रास्ता साफ कर दिया। अब तक सिर्फ पुरुष अफसरों को ही परमानेंट कमीशन मिलता था। शॉर्ट सर्विस कमीशन के तहत अधिकतम 14 साल की सर्विस पूरी करने के बाद स्थाई कमीशन का विकल्प महिलाओं के लिए नहीं था। 11 महिला अफसरों ने थलसेना में बराबरी के हक के लिए 13 साल पहले अपने संघर्ष की शुरुआत की थी। लेफ्टिनेंट कर्नल सीमा सिंह भी इन अफसरों से एक थीं। उन्होंने थलसेना में महिलाओं को बराबरी का अधिकार दिए जाने की मांग से जुड़ी याचिका दिल्ली हाईकोर्ट में दाखिल की थी। लेफ्टिनेंट कर्नल सीमा सिंह दैनिक भास्कर के साथ इस बातचीत में अपने इस संघर्ष के बारे में विस्तार से बता रही हैं…

सवाल: आपकी वर्षों की मेहनत सफल हुई। ये सफर कितना मुश्किल रहा?
जवाब: लेफ्टिनेंट कर्नल सीमा सिंह : ये सफर सच में काफी मुश्किल था। हर वो सफर शायद मुश्किल ही होता है, जो बिल्कुल नया रास्ता खोलने के लिए तय किया जाता है। असल में फौज पुरुषों के दबदबे वाली एक संस्था है। हमें सबसे पहले तो उस मानसिकता से ही लड़ना था, जो महिलाओं को मौके देने से भी घबराती है। जिस तरह घर के बड़े-बुजुर्ग कई बार अपने बच्चों के लिए इतने फिक्रमंद हो जाते हैं कि उनकी उड़ान में बाधक बन जाते हैं, फौज भी महिलाओं को लेकर यही रवैया रखती है। हमारी लड़ाई पुरुषों से नहीं, बल्कि पितृसत्तात्मक सोच से रही है।

सवाल:जब आपने सेना को बतौर करियर चुना था, तब सोच आज से कहीं ज्यादा मजबूत रही होगी। उस दौर में किसी महिला के लिए सेना में जाना कितना चुनौतीपूर्ण था?
जवाब: हां। उस वक्त डॉक्टर और टीचर जैसे दो-तीन ही विकल्प थे, जिन्हें महिलाओं के लिए ठीक समझा जाता था। लेकिन मुझे हमेशा से ही भारतीय सेना आकर्षित करती थी। पिताजी भी फौज में थे और उन्होंने ही मुझे पंख दिए कि मैं ये उड़ान भर सकूं। मैं एनसीसी में सी सर्टिफिकेट ले चुकी थी और एक ग्लाइडर पाइलट भी थी। हम लोग तब एनडीए में फ्लाइंग के लिए जाया करते थे। वहां मैं कैडेट्स को देखकर सोचा करती थी कि मुझे भी आर्मी में ही जाना है। 1991-93 में मैंने ग्रेजुएशन किया। इत्तेफाक से उसी दौरान महिलाओं की शॉर्ट सर्विस कमिशन के जरिए भर्ती शुरू हुई। 1993 में पहली महिला अफसर कमीशन हुई थी। मैंने 1995 में भारतीय सेना जॉइन की। मेरा चयन थलसेना, वायुसेना और नौसेना, तीनों के लिए हो गया था। लेकिन मैंने थलसेना को ही चुना। आज मुझे लगता है मेरा ये फैसला सही भी था।

सवाल:क्या इतने साल की सर्विस के दौरान आपको कभी लैंगिक भेदभाव का सामना करना पड़ा?
जवाब: नहीं। मुझे कभी महसूस नहीं हुआ कि मेरे जेंडर के कारण कभी मेरे साथ कोई भेदभाव हुआ हो। मैं पूरे भरोसे के साथ कह सकती हूं कि देश में महिलाओं के लिए सेना से ज्यादा महफूज और गौरवशाली कोई अन्य संस्था नहीं है। हां, यहां उनके लिए पुरुषों की तुलना में मौके सीमित जरूर थे। यानी बराबरी के मौके नहीं थे। लेकिन इसे लैंगिक भेदभाव कहना शायद ठीक नहीं होगा। ये एक नकारात्मक शब्द है।

सवाल:लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे लैंगिक भेदभाव कहा है। कोर्ट में सुनवाई के दौरान तो केंद्र सरकार ने महिलाओं को स्थाई कमीशन देने का विरोध करते हुए यह भी तर्क दिया था कि जवानों को महिला अफसरों से कमांड लेना ठीक नहीं लगेगा। इस पर आप क्या सोचती हैं?
जवाब: ये बेहद गलत तर्क है। जब हम एक अफसर की यूनिफॉर्म में होते हैं तो हमारा महिला या पुरुष होना मायने नहीं रखता। जवान उस यूनिफॉर्म से कमांड लेते हैं। जवानों पर उंगली उठाना पूरी तरह से गलत है। इस सुनवाई के दौरान कई जवानों ने मुझसे यह व्यक्तिगत तौर पर कहा है कि सरकार हमारे कंधे पर बंदूक रखकर चलाना चाहती है। जवान महिलाओं को स्थाई कमीशन देने के खिलाफ नहीं हैं।

सवाल:क्या जवानों और पुरुष अफसरों ने भी इस पूरे संघर्ष के दौरान आप लोगों का साथ दिया?
जवाब: हां। उन सभी का साथ हमें मिलता रहा है। लेकिन जब भी इस तरह का कोई बड़ा फैसला लेना होता है तो हर कोई उसकी जिम्मेदारी लेने से बचता है। यही इस मामले में भी होता रहा। फौज और रक्षा मंत्रालय, दोनों ही इस फैसले को खुद से लागू करने से लगातार बचते रहे। उनके सामने दिक्कत ऐसी थी कि आखिर बिल्ली के गले में घंटी बांधेगा कौन? आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने घंटी बांध दी।

सवाल:कोर्ट जाने के बारे में आप लोगों ने कब और कैसे सोचा?
जवाब: जब ये अहसास हुआ कि मैं फौज नहीं छोड़ना चाहती, लेकिन फौज मुझे छोड़ रही है। 2006 में एक पॉलिसी आई थी। इसके तहत हमारे पुरुष साथियों को तो स्थाई कमीशन मिल रहा था, लेकिन महिलाओं को नहीं। ये हमें साफ तौर पर गलत लगा। जब हम लोग चुने गए थे, उस वक्त पूरे देश से सिर्फ 20 महिलाओं का ही सेना के लिए चयन होता था। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि ये चयन कितना मुश्किल था। इसके बावजूद हमें कुछ सालों की सर्विस के बाद सेना छोड़ देने को कहा जा रहा था। तब हमने तय किया कि हम चुप नहीं रहेंगे। कुछ महिला अफसरों ने मिलकर संबंधित अफसरों से मिलना शुरू किया। इनमें लेफ्टिनेंट कर्नल संगीता सरदाना, संध्या यादव, रेणु नौटियाल, रीता तनेजा, रेणु खीमा, मोनिका मिश्रा और प्रेरणा पंडित शामिल थीं। हम तत्कालीन रक्षा मंत्री एके एंटनी से लेकर राहुल गांधी, रेणुका चौधरी, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली और वृंदा करात जैसे कई नेताओं से मिले। हम चाहते तो थे कि ये मामला कोर्ट के दखल के बिना ही निपट जाए, लेकिन जब ऐसा नहीं हुआ तो हमारे पास कोर्ट जाने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं बचा। तब 2007 में हम दिल्ली हाईकोर्ट गए।

सवाल:2007 में शुरू हुई आपकी कानूनी लड़ाई 2020 में जाकर पूरी हुई। क्या इस दौरान काफी कुछ गंवाना भी पड़ा?
जवाब: बहुत कुछ गंवाना पड़ा। 2010 से 2020 का समय मेरा गोल्डन पीरियड था। अगर ये फैसला तब लागू हो गया होता तो दरमियानी सालों में मुझे कितने ही मौके मिल चुके होते। कई प्रमोशन, ट्रेनिंग से मैं वंचित रह गई। वो तमाम मौके जो स्थाई कमीशन वाले अफसरों को मिलते हैं, मुझे नहीं मिले। लेकिन मुझे खुशी है कि जो मौके हमें नहीं मिले, हमारी बेटियों को अब जरूर मिलेंगे। ये तसल्ली है कि हमने उनके लिए तो दरवाजे खुलवा दिए हैं।

सवाल:सरकारें लंबे समय तक इस फैसले को लागू करने से बचती रही थीं। क्या आपको लगता है कि इस फैसले को लागू करने में कुछ चुनौतियां भी सामने आ सकती हैं?
जवाब: मुझे नहीं लगता कोई बड़ी चुनौतियां आ सकती हैं। सरकारें इससे इसलिए बचती रहीं क्योंकि कोई भी इतने बड़े फैसले की जिम्मेदारी नहीं लेना चाहता था। जब हम कोर्ट गए थे, तब देश में कांग्रेस की सरकार थी। अब सरकार बदले भी 6 साल हो चुके हैं। 15 अगस्त 2018 को प्रधानमंत्री मोदी ने लाल किले से ये बात कही थी कि उनकी सरकार ये कदम उठाने जा रही है। इसके बाद भी ये संभव तभी हुआ जब सुप्रीम कोर्ट ने इस पर फैसला सुनाया। हालांकि, सरकार में शामिल कुछ लोगों का हमें हमेशा समर्थन मिलता रहा है। मीनाक्षी लेखी जी का तो विशेष रूप से धन्यवाद देना चाहूंगी, जिन्होंने शुरुआत से इस लड़ाई को लड़ा है। दिल्ली हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक उन्होंने इतने इतने साल हमारी ये लड़ाई लड़ी और एक पैसा भी फीस के रूप में हमसे नहीं लिया।

सवाल:सेना में शामिल होने की इच्छा रखने वाली देश की लड़कियों को आप क्या संदेश देना चाहेंगी?
जवाब: उनसे यही कहना चाहती हूं कि हमने जो संघर्ष किया, वो असल में उन्हीं के लिए है। हमने एक बंद दरवाजा खोल दिया है। दुनिया को कर दिखाने का हमें मौका न देकर उन्होंने भारी भूल की थी। अब लड़कियों के लिए पूरा आसमान खुला है और मुझे यकीन है कि हमारी बेटियां आसमान से भी ऊंची उड़ान भरने में सक्षम हैं।

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Interview lieutenant colenel seema singh|Army Women Officer Lt Col Seema Singh Bola: Men not against us, government was running with gun on their shoulders


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Source: DainikBhaskar.com

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