नारायण राणे और उद्धव ठाकरे के बीच दुश्मनी का पूरा इतिहास – BBC हिंदी

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महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे को थप्पड़ मारने की कथित टिप्पणी को लेकर शुरू हुए विवाद के बाद केंद्रीय मंत्री नारायण राणे को मंगलवार को गिरफ़्तार कर लिया गया. बाद में मध्यरात्रि में उन्हें ज़मानत पर रिहा कर दिया गया. नारायण राणे को तटवर्ती रत्नागिरि ज़िले में हिरासत में लिया गया था. वे वहां ‘जन आशीर्वाद यात्रा’ के क्रम में दौरे पर थे.

मंगलवार को बंबई हाईकोर्ट ने नारायण राणे की ज़मानत याचिका पर सुनवाई से इनक़ार कर दिया था, इसके बाद उनकी गिरफ़्तारी हुई.

बहरहाल, इस पूरे मामले ने एक बार फिर से नारायण राणे और उद्धव ठाकरे के बीच की आपसी रंज़िश को सुर्खियों में ला दिया है. नारायण राणे एक समय में शिवसेना के तेज़ तर्रार नेता रहे, लेकिन उद्धव ठाकरे से उनकी कभी नहीं बनी. इन दोनों के बीच बीते 25 सालों से छत्तीस का आंकड़ा रहा है.

नारायण राणे ने पिछले गुरुवार को अपनी जन आशीर्वाद रैली की शुरुआत शिवाजी पार्क में बाल ठाकरे मेमोरियल में श्रद्धांजलि अर्पित करने के बाद शुरू की थी. जब वे वहां से बाहर निकले तो शिव-सैनिकों ने मेमोरियल की शुद्धता के लिए गौमूत्र का छिड़काव किया. इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि नारायण राणे और शिवसैनिकों के बीच संबंध कितने ख़राब स्थिति में पहुंच चुके हैं.

बहरहाल, वास्तविकता यही है कि भारतीय जनता पार्टी नारायण राणे में जो संभावनाएं आज देख रही है, वही संभावनाएं बाल ठाकरे ने 40 साल पहले देखी थीं. नारायण राणे कोंकण क्षेत्र से आने वाले मराठा नेता हैं, जो अपनी आक्रामकता के लिए जाने जाते रहे हैं. वे चेंबुर में कॉरपोरेटर रहे, वहां से शुरुआत करते हुए वे मुंबई की सार्वजनिक बस परिवहन ‘बेस्ट’ कमेटी के तीन साल तक चेयरमैन रहे.

बाद में उन्हें राज्य सरकार में मंत्री बनाया गया और फिर वे उस मुकाम तक पहुंचे जहां बाल ठाकरे ने उन्हें महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनाया. नारायण राणे अपने राजनीतिक करियर में ना केवल अपनी आक्रामकता बल्कि गाली गलौच वाली भाषा के लिए जाने जाते रहे हैं.

वैसे शिवसेना में रहते हुए उन्हें काफ़ी विरोध का सामना भी करना पड़ा था. उनके विरोध के केंद्र में बाल ठाकरे के बेटे और महाराष्ट्र के मौजूदा मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे थे. उद्धव ठाकरे, सुभाष देसाई और मनोहर जोशी- तीनों नारायण राणे को मुख्यमंत्री बनाने के पक्ष में नहीं थे. तीनों ने हमेशा नारायण राणे की आक्रामकता का भी विरोध किया और इन वजहों से राणे को शिवसेना से बाहर निकलना पड़ा था.

यानी ज़ाहिर है कि नारायण राणे और उद्धव ठाकरे के बीच दुश्मनी बेहद पुरानी है और यह दुश्मनी कई पड़ावों के बाद यहां तक पहुंची है.

उद्धव ठाकरे

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शिवसेना में नारायण राणे का सफ़र

एक समय में नारायण राणे शिवसेना के बेहद आक्रामक नेता के तौर पर गिने जाते थे. उन्हें शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे का समर्थन हासिल था. लेकिन इसका मतलब यह नहीं था कि शिवसेना में उनके लिए सबकुछ ठीक चल रहा था, पार्टी के अंदर उन्हें काफ़ी विरोध झेलना पड़ रहा था.

उद्धव और राज ठाकरे पर ‘द कजिन्स ठाकरे’ किताब लिख चुके धवल कुलकर्णी ने बीबीसी मराठी से कहा, “1995 में जब शिवसेना और बीजेपी गठबंधन की सरकार बनी तो शिवसेना में दो विरोधी गुट थे, एक तरफ़ तो उद्धव ठाकरे, मनोहर जोशी और सुभाष देसाई थे जबकि दूसरी तरफ़ राज ठाकरे, नारायण राणे और स्मिता ठाकरे थीं.”

“1999 में बाल ठाकरे ने मनोहर जोशी की जगह नारायण राणे को मुख्यमंत्री बनाने का फ़ैसला लिया क्योंकि उन्हें शायद यह अंदाज़ा हो गया था कि मराठा बहुजन तबके का चेहरा महाराष्ट्र की राजनीति में ताक़तवर बने रहने के लिए ज़रूरी है. लेकिन उद्धव ठाकरे मनोहर जोशी को हटाए जाने से खुश नहीं थे. आप कह सकते हैं कि उद्धव ठाकरे और नारायण राणे के बीच यहां से दीवार खींच गई थी.”

हालांकि राणे महज़ नौ महीने तक राज्य के मुख्यमंत्री रहे. बीजेपी और शिवसेना गठबंधन ने कार्यकाल पूरा होने से पहले चुनाव में जाने का फ़ैसला लिया और उस चुनाव में गठबंधन को हार का सामना करना पड़ा था. नारायण राणे ने अपनी ऑटोबायोग्राफ़ी ‘नो होल्ड्स बार्ड – माय ईयर्स इन पॉलिटिक्स’ में इस हार के लिए उद्धव ठाकरे को ज़िम्मेदार ठहराया है.

नारायण राणे आत्मकथा 'नो होल्ड्स बार्ड'

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उद्धव ठाकरे 1999 में क्या कर रहे थे?

अपनी आत्मकथा में राणे ने लिखा है, “बीजेपी-शिवसेना ने महाराष्ट्र विधानसभा को समय से पहले भंग करने का फ़ैसला लिया. 1995 से सरकार चला रहे गठबंधन में तय हुआ था कि शिवसेना 171 सीटों पर चुनाव लड़ेगी जबकि बीजेपी 117 सीटों पर और शिवसेना अपने कोटे से 10 सीटें दूसरे सहयोगी दलों को देगी.”

“शिवसेना के उम्मीदवारों की सूची बाला साहेब ठाकरे के हस्ताक्षर के बाद पार्टी के मुखपत्र ‘सामना’ में छपने के लिए भेजी गई. जब उद्धव ठाकरे ने सूची देखी तो उन्होंने बिना किसी से संपर्क किए 15 उम्मीदवारों के नाम बदल दिए.”

राणे ने अपनी आत्मकथा में दावा किया है कि अगर ऐसा नहीं होता तो गठबंधन की सरकार की वापसी होती. उनके मुताबिक, ”जिन 15 उम्मीदवारों के नाम उद्धव ने बदले उनमें से 11 उम्मीदवार या तो दूसरी पार्टी से या निर्दलीय चुनाव मैदान में उतरे और उन्होंने जीत हासिल की. शिवसेना को चुनाव में 69 सीटें हासिल हुई थीं, अगर ये 11 उम्मीदवार भी पार्टी के साथ होते तो पार्टी को 80 सीटें हासिल होतीं. बीजेपी को 56 सीटें मिली थीं. इसके बाद निर्दलीय और दूसरी छोटी पार्टियों के सहयोग से शिवसेना-बीजेपी गठबंधन की सरकार की वापसी होती, लेकिन यह अवसर गंवा दिया गया.”

महाराष्ट्र की राजनीति

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सरकार बनाने में नाकामी

1999 के चुनाव में शिवसेना और बीजेपी गठबंधन को दूसरे सहयोगी दलों के साथ कुल 136 सीटें हासिल हुई थीं, यानी बहुमत से नौ सीटें कम. इस चुनाव में कांग्रेस को 75 सीटें मिली थीं जबकि एनसीपी को 56 सीटें.

राणे ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, “चुनाव परिणाम आने के काफ़ी समय बाद तक किसी ने भी सरकार बनाने का दावा पेश नहीं किया था. राज्य के राज्यपाल पीसी एलेक्ज़ेंडर मुझसे लगातार कह रहे थे कि राणे जी आप दावा पेश कीजिए. लेकिन कोई पार्टी दावा लेकर नहीं आई. 12 अक्टूबर के बाद अलेक्जेंडर थोड़े चिढ़ भी गए थे.”

राणे के मुताबिक, “एक दिन बाला साहेब ठाकरे ने मुझसे पूछा कि गोपीनाथ मुंडे मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं, क्या वे कामयाब होंगे? मैंने उनसे कहा कि मैं नहीं जानता कि मुंडे कामयाब होंगे या नहीं, लेकिन हमारे गठबंधन के पास पर्याप्त विधायक मौजूद हैं.”

लोकमत के सीनियर एसोशिएट एडिटर संदीप प्रधान ने बीबीसी मराठी से कहा कि 1999 के चुनाव के बाद गोपीनाथ मुंडे की अहम भूमिका रही थी, वे सरकार बनाना चाहते थे. यही वजह थी कि बीजेपी ने समर्थन देने की घोषणा में देरी की थी.

लेकिन क्या उस वक्त उद्धव ठाकरे राजनीतिक तौर पर इतने सक्रिय थे कि वे एक साथ 15 उम्मीदवारों को बदलने का फ़ैसला ले सकते थे, इस बारे में संदीप प्रधान ने कहा, “हर पार्टी चुनाव में 10 से 15 प्रतिशत उम्मीदवारों को बदलती है. लेकिन उस बदलाव में उद्धव ठाकरे की कोई भूमिका थी, यह अब तक स्पष्ट नहीं हो सका है. उन दिनों पार्टी के सभी फ़ैसले बाला साहेब ठाकरे लिया करते थे. उद्धव ठाकरे महाबलेश्वर अधिवेशन में पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष बनाए गए थे और उसके बाद से ही वो पार्टी के फ़ैसले लेने वाली प्रक्रिया में शामिल होने लगे थे.”

नारायण राणे

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गठबंधन को फिर से मिल सकता था मौका?

2002 में कुछ निर्दलीय विधायकों और छोटी पार्टियों ने विलासराव देशमुख की सरकार से समर्थन वापस लेने की घोषणा की थी. उसके बाद शिवसेना-बीजेपी गठबंधन के सामने सरकार बनाने का मौका था. राणे ने इस मामले पर भी अपनी आत्मकथा में विस्तार से लिखा है.

कुछ निर्दलीय विधायकों और एनसीपी विधायकों को गोरेगांव के मातोश्री क्लब में रखा गया था, लेकिन इसी बीच केंद्रीय रक्षा मंत्री जॉर्ज फ़र्नांडिस बाल ठाकरे से मिले और सबकुछ बदल गया.

अगले दिन बाला साहेब ठाकरे ने प्रेस कॉन्फ़्रेंस बुलाई और उसमें कहा, “हम लोग सत्ता के भूखे नहीं हैं. इसलिए हम सरकार गिराने के किसी अभियान का समर्थन नहीं करेंगे.”

राणे ने दावा किया है कि उनके इस फ़ैसले में उद्धव ठाकरे, गोपीनाथ मुंडे और जॉर्ज फ़र्नांडिस का अहम योगदान था.

उद्धव ठाकरे

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महाबलेश्वर अधिवेशन और उद्धव को कमान

2002 में एनसीपी कार्यकर्ता सत्यविजय भिसे की हत्या हो गई. यह हत्या कंकावली से 15 किलोमीटर दूर शिवदेव में हुई थी. तब नारायण राणे विधानसभा में विपक्ष के नेता थे. इस हत्या के बाद कुछ लोगों ने कंकावली स्थित नारायण राणे के घर को आग लगाने की कोशिश की थी, लेकिन उस वक्त शिवसेना का कोई नेता नारायण राणे के साथ खड़ा नहीं दिखा था.

धवल कुलकर्णी के मुताबिक उस घटना के बाद राणे ने पार्टी से दूरी बनानी शुरू कर दी थी. महाबलेश्वर में शिवसेना की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में उद्धव ठाकरे और नारायण राणे के संबंध बेहद ख़राब हो गए.

धवल कुलकर्णी ने बताया, “जनवरी, 2003 में शिवसेना की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक महाबलेश्वर में हुई थी. उसी बैठक में राज ठाकरे ने पार्टी कार्यकारिणी के चेयरमैन के तौर पर उद्धव ठाकरे के नाम की घोषणा की थी. नारायण राणे ने इस प्रस्ताव का विरोध किया था. बाला साहेब ठाकरे ने तब कहा था कि उन्हें इन सबके के बारे में कोई जानकारी नहीं है. लेकिन राणे का कहना है कि वे जानते थे.”

राणे के मुताबिक वे उद्धव ठाकरे का नाम प्रस्तावित किए जाने से पहले बाला साहेब से मिले थे, तब बाला साहेब ने उनसे कहा था- ”नारायण, फ़ैसला हो चुका है.”

नारायण राणे

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रंगशारदा ऑडिटोरियम में राणे का वो भाषण

इसके बाद भी नारायण राणे पार्टी में बने रहे. 2006 के विधानसभा चुनाव के दौरान उन्होंने पार्टी उम्मीदवारों के लिए जमकर प्रचार किया है, हालांकि अधिकांश उम्मीदवार उद्धव ठाकरे की पसंद से चुने गए थे. लेकिन राणे सबके लिए मेहनत कर रहे थे. वो उन उम्मीदवारों को ये भी संकेत दे रहे थे कि अगर मौका आए तो विधान दल के नेता के तौर पर मुझे ही चुनना. ये बात पार्टी के सर्वोच्च लीडरशिप तक भी पहुंच गई, वैसे भी शिवसेना में विधायक दल का नेता पार्टी सुप्रीमो ही चुना करते थे.

इसी बीच शिवसेना कार्यकर्ताओं की एक रैली रंगशारदा ऑडिटोरियम में आयोजित हुई. उस रैली में बोलते हुए राणे ने कहा, “शिवसेना में पैसा लेकर पार्टी पद दिया जा रहा है.” उस रैली में बाल ठाकरे भी मौजूद थे, उन्होंने नारायण राणे की बात से अप्रसन्नता ज़ाहिर की.

महाराष्ट्र की राजनीति पर नज़र रखने वाले कई पत्रकारों को वह रैली आज भी याद है. राणे 2004 में विपक्ष के नेता थे. वे विदेश दौर पर गए. वे जब वापस लौटे तो पार्टी के अंदर उनके प्रति विरोध काफ़ी ज़्यादा था, उन्हें भी पार्टी में अपना दम घुटता महसूस हुआ. 2005 में वे शिवसेना छोड़कर कांग्रेस में चले गए.

इसके कुछ दिनों बाद उन्होंने अपनी ‘स्वाभिमान पार्टी’ बनाई और इसके बाद बीजेपी में आ गए. बीते 14 सालों में बहुत कुछ बदल गया है कि लेकिन राणे और शिवसेना के बीद कटुता में कोई बदलाव नहीं आया है.

पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान जब उद्धव ठाकरे और शिवसेना के नेता राणे की आलोचना कर रहे थे, तब नारायण राणे ने थोड़ा संयम दिखाया था. हालांकि राणे को कभी उद्धव ठाकरे के नेतृत्व पर भरोसा नहीं रहा. लेकिन उद्धव ठाकरे ने शिवसेना का सफलतापूर्क नेतृत्व किया और पार्टी को विस्तार भी दिया.

आज शिवसेना के पास महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री का पद है, दूसरी ओर राणे शिवसेना से निकलकर कांग्रेस में गए, अपनी पार्टी बनाई और अब बीजेपी में क़िस्मत आज़मा रहे हैं. हालांकि अब वे केंद्रीय मंत्री हैं, लेकिन जिस महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पद पर उनकी नज़र थी, उस पर आज की तारीख में उद्धव ठाकरे बैठे हुए हैं.

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