पंजाब की राजनीति के लिए इसके क्या मायने हैं?
यह समय पंजाब की राजनीति के लिए किसी अप्रत्याशित परिस्थिति से कम नहीं है. इसमें कोई शक नहीं है कि सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के खिलाफ काफी नाराजगी है. बगरारी मामले में होने वाली कार्रवाई में ढिलाई, सरकार की भ्रष्ट्राचार को लेकर कमजोर पकड़, रेत और ड्रग्स माफियों से निपटने में नाकाफी प्रयास और राज्य में बेरोजगारी को दूर करने की दिशा में सरकार के प्रयास अप्रभावी दिख रहे हैं.
हालांकि प्रदेश में विपक्ष की स्थिति और भी ज्यादा बदतर है. आम आदमी पार्टी दलबदली और गुटबाजी से परेशान है. वहीं शिरोमणि अकाली दल अभी भी बरगारी और शुरुआती दौर में कृषि कानूनों को समर्थन देने के लिए आलोचना का सामना कर रहा है. इसके अलावा बीजेपी जो हिंदू वोटों के लिए कांग्रेस की मुख्य प्रतिद्वंद्वी पार्टी है, वह कृषि कानूनों की वजह से यहां सिमट सी गई है. बीजेपी के नेताओं का जनसभाओं में जाना भी मुश्किल हो रहा है.
शुरुआती कुछ सालों के कार्यकाल के दौरान लोगों ने कांग्रेस को अन्य खराब विकल्पों की तुलना में सबसे कम खराब विकल्प के तौर पर देखा है. इसने कैप्टन को बिना कुछ किए ही उनको सुरक्षित कर दिया है.
एक आम धारणा बनी कि “कैप्टन ने भले ही कुछ नहीं किया, लेकिन उसने कम से कम किसी को बहुत ज्यादा परेशान तो नहीं किया.”
अब कांग्रेस के लिए जो समस्या है वह यह कि अन्य पार्टियों में अव्यवस्था के चलते अब विपक्ष दो तरीके से सामने आ रहा है. पहला आंतरिक रूप से सिद्धू, परगट सिंह और अन्य के तौर पर. वहीं दूसरा जरिया यानी बाहरी तौर पर किसान समूहों के प्रर्दशन, पंथिक संगठन और अन्य के माध्यम से.
अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले कृषि विरोधी कानून के खिलाफ होने वाला प्रदर्शन विशेष तौर पर एक प्रमुख एक्स फैक्टर के रूप में उभरा है.
अब तक इसमें कोई शक नहीं है कि बीजेपी और उसके बाद अकाली दल के खिलाफ सबसे ज्यादा गुस्सा है. लेकिन कांग्रेस के अंदरुनी सूत्रों को इस बात का भी डर है कि एक बार सत्ता विरोधी माहौल बन जाने के बाद विश्वास दिलाना कठिन होगा कि राज्य सरकार इससे अछूती रहेगी.