एन रघुरामन का कॉलम: दिल्ली में ट्रैक्टर रैली के दौरान केवल बैरिकेड नहीं टूटे, बल्कि किसानों ने भरोसा भी तोड… – दैनिक भास्कर

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3 घंटे पहलेलेखक: एन. रघुरामन

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एन. रघुरामन, मैनेजमेंट गुरु

टेलीविजन पर 26 जनवरी को आने वाली तस्वीरें देखकर मैं डरा हुआ हूं। तस्वीरों में मंगलवार की सुबह दिल्ली बॉर्डर पर कई जगह किसान पुलिस की बैरिकेडिंग तोड़कर दिल्ली की तरफ बढ़ते हुए दिखे। इसकी निंदा इसलिए भी की जानी चाहिए, क्योंकि किसानों ने यह सब अपनी ट्रैक्टर रैली के लिए तय किए गए समय से पहले किया।

पहले तो किसानों ने ट्रैक्टर परेड के लिए तय किए गए रूट को नहीं माना। इसके बाद जब सेंट्रल दिल्ली में ITO पर पुलिस ने उन्हें रोका, तो प्रदर्शन कर रहे किसानों के एक धड़े ने अपने ट्रैक्टर लाल किले की तरफ मोड़ दिए। धीरे-धीरे लाल किले पर भीड़ बढ़ती गई। कुछ प्रदर्शनकारी किसान लाल किले के अंदर घुस गए और उन्होंने वहां केसरिया झंडा फहरा दिया।

किसानों के ट्रैक्टर बसों और पुलिस की पीसीआर वैन को उलट रहे थे। किसानों ने कई पुलिसकर्मियों के ऊपर ट्रैक्टर चढ़ाने की कोशिश की। उन्हें अपनी जान बचाने के लिए बेतरतीब तरीके से भागते हुए देखना शर्मनाक था। संक्षेप में कहें, तो जिन किसानों ने पहले से तय किए गए रूट को तोड़ा, वे ITO, प्रगति मैदान, लाल किला समेत दूसरी जगहों पर पुलिस से भिड़ते नजर आए।

हालांकि किसानों ने दिल्ली के VIP और उच्च सुरक्षा वाले इलाके ITO को शाम 6 बजे तक खाली कर दिया था और यहां ट्रैफिक भी सामान्य हो गया था। लेकिन, मुझे अब भी यकीन नहीं हो रहा है कि ये वही किसान थे, जिनके साथ मैंने सिंघु बॉर्डर पर 70 घंटे बिताए थे।

सिंघु बॉर्डर पर सर्दी और बारिश के बीच शांतिपूर्वक प्रदर्शन करने वाले किसान उन पुलिसवालों तक को खाना खिला रहे थे, जो सीमेंट के मजबूत डिवाइडर के दूसरी तरफ तैनात थे। यही डिवाइडर बैरिकेड्स का काम कर रहे थे। किसानों के दो महीने के प्रदर्शन के दौरान एक भी डिवाइडर नहीं हटाया गया। लेकिन, रैली के दौरान एक ही दिन में ITO पर लगभग सारे रोड डिवाइडर तोड़ दिए गए। लाल किले के बाहर कैमरों को भी नुकसान पहुंचाया गया।

मुझे इस बात से भी हैरानी हुई कि ये उन्हीं किसान यूनियनों के सदस्य थे, जो सड़कों की सफाई कर रहे थे। रोड के पास रहने वाले गांव वालों की मदद कर रहे थे, ताकि उन्हें कोई परेशानी न हो। यही वजह है कि सार्वजनिक संपत्ति को इस तरह का नुकसान पहुंचाना न केवल अस्वीकार्य, बल्कि निंदनीय है। इसके अलावा, बवाल में 86 पुलिसकर्मियों का घायल होना और भी पीड़ादायक है। इनमें से कम से कम 26 लाल किले के बाहर घायल हुए। कैमरे में पता चला कि उन पर लोहे की रॉड से हमला किया गया था।

हालांकि, किसान नेताओं ने पूरे उपद्रव से खुद को अलग कर लिया और इसके पीछे बाहरी तत्वों का हाथ होने का आरोप लगाया। लेकिन, इसको लेकर दिल्ली पुलिस का बयान किसानों से ज्यादा भरोसेमंद नजर आता है। इस बात में कोई शक नहीं है कि सुबह से ही किसान नेता प्रदर्शनकारियों से अपील कर रहे थे, ‘किसी को हमारी खामी ढूंढने का मौका मत देना।’ लेकिन, इसके बावजूद, कुछ ही घंटों के भीतर हिंसा के लिए बाहरी लोगों को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। यह सब कुछ गणतंत्र दिवस पर हुआ, जब दुनियाभर के मीडिया की निगाहें राष्ट्रीय राजधानी पर थीं।

मैं दिल्ली पुलिस के ट्रैक्टर रैली को मंजूरी देने के फैसले पर भी हैरान हूं, वो भी 26 जनवरी के दिन जब पूरा देश राजपथ पर निकलने वाली परेड को देखता है। दूसरी वजह यह है कि मैं मुंबई का रहने वाला हूं जहां ऑटो रिक्शा तक को मुख्य शहर में आने की इजाजत नहीं है। उन्हें उपनगरों में ही संचालित करने की अनुमति है।

वजह कुछ भी हो सकती है। लेकिन, पुलिस ने राजधानी के बॉर्डर पर बैरिकेड्स के पार पिछले दो महीने से जारी उनके शांतिपूर्ण प्रदर्शन को देखते हुए यह इजाजत दी होगी। किसानों का अच्छा व्यवहार भी इस फैसले की वजह रहा होगा। अगर किसान इस समाज का हिस्सा हैं, तो उनसे कानून को मानने वाले दूसरे नागरिकों की तरह ही अच्छा व्यवहार करने की उम्मीद की जाती है। अगर यह कानून के दायरे में किया जा रहा विरोध प्रदर्शन था, तो उन्हें अपनी ताकत दिखाने के लिए गैरकानूनी कदम नहीं उठाने चाहिए थे।

तो गड़बड़ कहा हुई? कुछ लोगों का कहना है कि यह किसानों का दबा हुआ गुस्सा था जो इस तरह बाहर आया। अब जबकि किसान नेता हिंसा के पीछे बाहरी ताकतों का हाथ होने की बात कहते हुए खुद को पूरे मामले से अलग कर रहे हैं। ऐसे में एक मिनट के लिए अगर हम मान लें कि उनकी बात पूरी तरह सही है, तो इसे साबित करना भी उनकी ही जिम्मेदारी है। क्योंकि, वीडियो फुटेज कुछ और ही कहानी कह रहे हैं। अगर उनकी शांतिपूर्ण रैली को उपद्रवियों ने हाईजैक कर लिया था, तो उन्हें सामने लाना भी किसान नेताओं की ही जिम्मेदारी है।

मेरा यकीन कीजिए, अगर ये लोग सचमुच बाहरी थे, तो उनका खुलासा होने में थोड़ा ही समय लगेगा। तब तक इसकी कीमत उन किसानों को ही चुकानी पड़ेगी, जो अस्थायी कैंपों में पूरी सहूलियत के साथ रह रहे थे। इस मामले में एक और अहम बात आंदोलन को मिलने वाले विदेशी पैसे को लेकर है, जिसके बारे में सरकार छानबीन करेगी।

विरोध प्रदर्शन की अगुवाई कई अलग-अलग ग्रुप कर रहे हैं। ऐसे में संभव है कि कुछ लोगों ने अपने नेताओं की हिदायतों के खिलाफ काम किया हो। यदि ऐसा है, तो उन्हें पहचानकर बाहर निकालना भी किसान नेताओं की ही जिम्मेदारी है।

अगर आप मंगलवार के घटनाक्रम पर मेरी राय पूछें, तो मैं पूरे दिन को एक लाइन में कहूंगा कि लोकतंत्र में हिंसा के लिए कोई जगह नहीं है। इससे भी बुरी बात यह है कि इस घठनाक्रम ने मौसम की मार के बीच पिछले दो महीने से किए गए किसानों के संघर्ष पर बदनुमा दाग लगाया है। आम आदमी के बीच उनकी छवि साफ तौर पर खराब हुई है। अगर किसान लोगों की सहानुभूति दोबारा हासिल करना चाहते हैं, तो उन्हें पिछले दो महीने में की गई मेहनत से आगे बढ़कर खुद को साबित करना होगा। मुझे आशंका है कि यह जल्दी नहीं हो सकेगा।

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