पश्चिम बंगाल: ममता बनर्जी का मास्टर स्ट्रोक है ‘नंदीग्राम का संग्राम’? – BBC हिंदी

  • प्रभाकर मणि तिवारी
  • कोलकाता से बीबीसी हिन्दी के लिए

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी ने पूर्वी मेदिनीपुर ज़िले के नंदीग्राम से चुनाव लड़ने का एलान कर राज्य की राजनीति में हलचल मचा दी है.

राजनीतिक हलक़ों में उनके इस फ़ैसले को मास्टरस्ट्रोक माना जा रहा है. लेकिन क्या सिर्फ़ शुभेंदु अधिकारी के सहारे इलाक़े पर क़ब्ज़ा करने की बीजेपी की रणनीति की काट के लिए ही उन्होंने यह फ़ैसला किया है?

ममता अपने लंबे राजनीतिक करियर में औचक फ़ैसलों के लिए मशहूर रही हैं. लेकिन नंदीग्राम से चुनाव लड़ने के फ़ैसले के पीछे कई वजहें हैं.

नंदीग्राम महज़ एक गाँव नहीं, बल्कि बंगाल की राजनीति में बदलाव का प्रतीक है. वर्ष 2007 में ज़मीन अधिग्रहण के ख़िलाफ़ आंदोलन और आंदोलनकारियों पर पुलिस फ़ायरिंग में 14 लोगों की मौत की वजह से इसने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुर्ख़ियाँ बटोरी थीं.

ममता बनर्जी

ममता की जीत की राह नंदीग्राम

इसी आंदोलन ने राज्य में वाममोर्चा के तीन दशक से लंबे शासन के अंत की शुरुआत की और ममता बनर्जी के सत्ता में जाने की राह खोली थी. अब 14 साल बाद यह इलाक़ा एक बार फिर सुर्ख़ियों में आ गया है.

लेकिन मौजूदा दौर में नंदीग्राम की अहमियत की वजह दूसरी है. कभी ममता का दाहिना हाथ रहे जिस शुभेंदु अधिकारी ने नंदीग्राम आंदोलन की रूपरेखा तैयार कर आंदोलन को अंतरराष्ट्रीय सुर्ख़ियाँ दिलाई थीं, वह अब टीएमसी से नाता तोड़ कर बीजेपी में शामिल हो चुके हैं.

बीजेपी उनके सहारे ही बंगाल की सत्ता पर क़ाबिज़ होने का सपना देख रही है. लेकिन ममता ने अब उन्हीं शुभेंदु के गढ़ में सीधी चुनौती देते हुए नंदीग्राम सीट से लड़ने का एलान किया है.

ममता ने यह एलान सोमवार को नंदीग्राम की रैली में किया. शुभेंदु के बीते दिसंबर में टीएमसी छोड़ कर बीजेपी में शामिल होने के बाद यह इस इलाक़े में ममता की पहली रैली थी. वर्ष 2016 के विधानसभा चुनाव में शुभेंदु ने टीएमसी के टिकट पर यह सीट जीती थी.

नंदीग्राम में सोमवार को अपनी हाल की पहली रैली में ममता ने कहा कि वे इसी सीट से चुनाव लड़ना चाहती हैं. उनका कहना था, “मैं अपना नाम भूल सकती हूँ. लेकिन कभी नंदीग्राम को नहीं भूल सकतीं. नंदीग्राम जबरन ज़मीन अधिग्रहण के ख़िलाफ़ विरोध का प्रतीक है. यह जगह पार्टी के लिए भाग्यशाली रही है. मैंने वर्ष 2016 में यहीं से टीएमसी के पहले उम्मीदवार के नाम का एलान किया था.”

ममता ने 14 मार्च, 2007 की पुलिस फ़ायरिंग में मारे गए लोगों के परिजनों को मासिक पेंशन देने का भी एलान किया. ममता बनर्जी हालाँकि पारंपरिक तौर पर दक्षिण कोलकाता की भवानीपुर विधानसभा सीट से लड़ती रही हैं. उन्होंने कहा कि वे भवानीपुर के लोगों की भावनाओं की भी उपेक्षा नहीं कर सकतीं. इससे क़यास लग रहे हैं कि ममता दोनों सीटों से मैदान में उतरेंगी.

ममता बनर्जी

बीजेपी के तुरुप के पत्ते शुभेंदु अधिकारी

शुभेंदु अधिकारी का नाम लिए बिना टीएमसी प्रमुख का कहना था कि उनको पार्टी छोड़ कर जाने वाले नेताओं की कोई चिंता नहीं है. जब टीएमसी का गठन हुआ था, तो यह तमाम नेता पार्टी में नहीं थे.

ममता ने कहा, “मैं हमेशा नंदीग्राम से ही अपने चुनाव अभियान की शुरुआत करती रही हूँ. यह जगह मेरे लिए भाग्यशाली साबित हुई है. कुछ लोग बंगाल को बीजेपी के हाथों बेचने का प्रयास कर रहे हैं. लेकिन मैं ऐसा नहीं होने दूँगी. टीएमसी छोड़ने वाले देश के राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति बन सकते हैं. लेकिन मैं अपने जीते-जी बंगाल को बीजेपी के हाथों बेचने नहीं दूँगी.”

उनका कहना था कि बीते कुछ वर्षों के दौरान अपना लूटा हुआ धन बचाने के लिए कुछ नेता बीजेपी का दामन थाम रहे हैं. अब यहाँ सवाल उठ रहे हैं कि आख़िर ममता के इस फ़ैसले का राज़ क्या है? दरअसल, इसकी कई वजहें हैं. पहली तो यह कि जिस शुभेंदु अधिकारी का हाथ पकड़ कर बीजेपी दक्षिण बंगाल में चुनावी वैतरणी पार करना चाहती थी, ममता ने उनको अपने घर यानी नंदीग्राम में ही घेर दिया है.

बीते लोकसभा चुनावों में 18 सीटें जीत कर टीएमसी को करारा झटका देने के बावजूद बीजेपी दक्षिण बंगाल के ख़ासकर झारखंड से लगे इलाक़ों में बेहतर प्रदर्शन नहीं कर सकी थी. उसकी एक वजह यह थी कि इस इलाक़े में उसके पास ममता या शुभेंदु के क़द का कोई नेता नहीं था.

अब शुभेंदु को अपने पाले में खींच कर पार्टी इन इलाक़ों पर क़ब्ज़ा जमाने का सपना देख रही थी. लेकिन ममता के इस एलान से वे अपने घर में घिर गए हैं. बीजेपी अपने इस तुरुप के पत्ते को बेकार नहीं जाने देना चाहती. नतीजतन अधिकारी के किसी और सीट से लड़ने के क़यास लग रहे हैं. बीजेपी को भरोसा था कि शुभेंदु दक्षिण बंगाल में पार्टी की ज़मीन मज़बूत करेंगे. लेकिन अब उनकी राह आसान नहीं है.

ममता बनर्जी

ममता का फ़ैसला अहम क्यों?

दूसरी वजह यह है कि इस बार विधानसभा चुनावों में धर्म के आधार पर धुव्रीकरण की ज़बरदस्त आशंका है. ममता के ख़ासकर पूर्वी मेदिनीपुर के इस पिछड़े माने जाने वाले इलाक़े से मैदान में उतरने की स्थिति में बीजेपी के पक्ष में हिंदू वोटरों का धुव्रीकरण पर अंकुश लगाने में सहायता मिल सकती है.

पूर्व मेदिनीपुर ज़िले में मुस्लिमों की आबादी क़रीब 14.6 फ़ीसद है. लेकिन नंदीग्राम में मुस्लिम वोटर निर्णायक स्थिति में हैं. वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक़ नंदीग्राम ब्लॉक-1, ब्लॉक-2 और नंदीग्राम क़स्बे में मुस्लिमों की आबादी क्रमशः 34, 12.1 और 40.3 फ़ीसद थी. बीते क़रीब दस सालों में यह और बढ़ी ही है.

बीते तीन चुनावों के आँकड़ों से स्पष्ट है कि नंदीग्राम में मुस्लिम वोटों की भूमिका बेहद अहम रही है. वर्ष 2006 के विधानसभा चुनावों में यहाँ पहले और दूसरे नंबर पर मुस्लिम उम्मीदवार ही रहे थे. तब हार-जीत का अंतर कुल मतदान का 3.4 प्रतिशत रहा था.

वर्ष 2011 में टीएमसी के एक मुस्लिम उम्मीदवार ने सीपीआई के हिंदू उम्मीदवार को हराया था. लेकिन हार-जीत का फ़ासला कुल मतदान का 26 प्रतिशत रहा था. वर्ष 2016 में इस सीट पर शुभेंदु अधिकारी को वर्ष 2011 में टीएमसी को मिले वोटों से सात प्रतिशत ज़्यादा वोट मिले थे. बावजूद इस तथ्य के कि सीपीआई ने एक मुस्लिम उम्मीदवार ही उतारा था.

पश्चिम बंगाल

राजनीतिक जानकारों का कहना है कि अगर ममता ने नंदीग्राम से लड़ने का फ़ैसला नहीं किया होता, तो टीएमसी इस सीट पर किसी मुस्लिम उम्मीदवार को ही मैदान में उतारती. वैसी स्थिति में बीजेपी को नंदीग्राम और आस-पास के इलाक़ों में हिंदू वोटरों के धुव्रीकरण में सहायता मिलती. लेकिन ममता के दांव से उसकी रणनीति को झटका लगा है.

ममता बनर्जी दक्षिणी कोलकाता के भवानीपुर इलाक़े से चुनाव लड़ती रही हैं. लेकिन इस बार नंदीग्राम चुनने की एक वजह यह भी है कि इस सीट पर उनकी राह शायद इतनी आसान नहीं थी.

वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी ने इस विधानसभा इलाक़े में टीएमसी पर 0.13 फ़ीसद की मामूली बढ़त ली थी. हालाँकि वर्ष 2016 में ममता यहाँ भारी अंतर से जीती थीं. लेकिन बीते साल आम चुनावों में टीएमसी को बीजेपी के मुक़ाबले महज़ दो प्रतिशत की ही बढ़त मिली थी.

भवानीपुर ग़ैर-बंगाली हिंदुओं की बहुलता वाला इलाक़ा है. वैसे में बीजेपी की निगाहें बहुत पहले से इस इलाक़े पर हैं. पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा समेत कई नेता भवानीपुर इलाक़े में रैलियाँ और रोड शो कर चुके हैं. कोलकाता में हिंदी भाषियों की तादाद राज्य में सबसे ज़्यादा है.

आमतौर पर विधानसभा चुनावों से पहले कोलकाता नगर निगम चुनाव होते रहे हैं. उसके नतीजों से पूर्वानुमान लगाने में आसानी होती रही है. लेकिन इस बार कोविड की वजह से चुनाव नहीं कराए जा सके. इस वजह से इस बात का अनुमान लगाना मुश्किल है कि बीते लोकसभा चुनावों के बाद ज़मीनी हालात में बदलाव आया है या नहीं.

ममता बनर्जी

बीजेपी के पक्ष में हिंदीभाषी वोटर्स?

ममता बीजेपी नेताओं को बाहरी क़रार देती रही हैं. बीजेपी इसे मुद्दा बना कर हिंदीभाषी वोटरों को अपने पाले में खींचने का प्रयास कर रही है.

ममता के नंदीग्राम से चुनाव लड़ने के फ़ैसले के बाद यह सवाल उठ रहे हैं कि क्या वे इलाक़े में अधिकारी परिवार के राजनीतिक रसूख़ का मुक़ाबला कर सकती हैं. पूर्व और पश्चिम मेदिनीपुर में विधानसभा की क्रमश: 16 और 18 सीटें हैं. इस इलाक़े में अधिकारी परिवार की राजनीतिक पकड़ बेहद मज़बूत है.

ममता को इस बात से कुछ राहत है कि शुभेंदु ने टीएमसी से नाता तोड़ कर अपनी अलग पार्टी नहीं बनाई. वैसी स्थिति में ममता के लिए मुश्किल हो सकती थी. लेकिन उनके बीजेपी में जाने से ममता के लिए उन पर हमले करना आसान हो गया है.

वैसे, उन्होंने एक ठोस रणनीति के तहत उन नेताओं को तवज्जो देना शुरू कर दिया है जिनको शुभेंदु के रहते अहमियत नहीं मिलती थी. सूफ़ियान और अबू ताम्र जैसे नेताओं को अब खुली छूट दे दी गई है.

ये दोनों नेता रैलियाँ आयोजित करने में जुटे हैं. दूसरी ओर, इलाक़े में बीजेपी का कोई संगठन नहीं है. वह शुभेंदु और उनके साथ आने वाले टीएमसी के पूर्व कार्यकर्ताओं के भरोसे ही जंग जीतने का सपना देख रही है. पार्टी ने इलाक़े में जो पोस्टर लगाए हैं, उनमें प्रधानमंत्री मोदी के साथ शुभेंदु की तस्वीरें हैं. दूसरी ओर, इलाक़े में टीएमसी के पोस्टरों में ममता की तस्वीरें लगी हैं.

अमित शाह

ममता के इस एलान से इलाक़े में टीएमसी के उन कार्यकर्ताओं को मनोबल भी बढ़ा है, जो शुभेंदु के बीजेपी में शामिल होने के बाद असमंजस में थे. हालाँकि शुभेंदु ने भी ममता की चुनौती स्वीकार करते हुए कहा है कि अगर ममता नंदीग्राम में कम से कम 50 हज़ार वोटों से पराजित नहीं हुईं, तो वे राजनीति से संन्यास ले लेंगे.

बंगाल के विपक्षी दलों ने ममता के फ़ैसले पर मिलीजुली प्रतिक्रिया जताई है. प्रदेश बीजेपी के प्रवक्ता शमीक भट्टाचार्य कहते हैं, “यह मुख्यमंत्री की हताशा का सबूत है. इससे साफ़ है कि उनको अपनी पार्टी के नेताओं पर भरोसा नहीं रह गया है.”

सीपीएस के वरिष्ठ नेता सुजन चक्रवर्ती कहते हैं कि ऐसी घोषणाओं से स्पष्ट है कि मुख्यमंत्री का पार्टी पर नियंत्रण नहीं रहा. उनकी आगे की राह काफ़ी फिसलन भरी है.

राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि ममता के इस एलान से राजनीतिक समीकरण दिलचस्प हो गए हैं. पर्यवेक्षक निर्माल्य बनर्जी कहते हैं, “ममता की उम्मीदवारी से शुभेंदु की उम्मीदवारी ख़तरे में पड़ सकती है.”

भले इलाक़े पर उनकी पकड़ काफ़ी मज़बूत रही हो. लेकिन ख़ुद ममता के साथ मुक़ाबले में उनके लिए अपनी सीट बचाना ही मुश्किल होगा, इलाक़े की बाक़ी सीटों की बात तो दूर है. यह ममता का मास्टरस्ट्रोक है.

उनका कहना है कि बदली हुई परिस्थिति में अब शुभेंदु और बीजेपी के केंद्रीय नेताओं को अपनी चुनावी रणनीति पर नए सिरे से विचार करना होगा. लेकिन फ़िलहाल यह जंग दिलचस्प तो बन ही गई है.

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