किसान आंदोलन : सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद किसान निकालेंगे ‘ट्रैक्टर परेड’ – BBC हिंदी

  • सलमान रावी
  • बीबीसी संवाददाता

दिल्ली के बॉर्डर पर आंदोलन कर रहे किसानों का कहना है कि वो सुप्रीम कोर्ट की पहल का स्वागत तो करते हैं मगर उनका आरोप है कि जो कमिटी किसानों की मांगों को लेकर बनाई गई है ‘वो सरकार के ही पक्ष’ में काम करेगी.

किसानों के संगठनों के प्रतिनिधि और भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत ने बीबीसी से बात करते हुए कहा कि जिन चार लोगों की कमिटी बनाई गई है उनपर किसानों को भरोसा इसलिए नहीं है क्योंकि इनमें से कुछ एक ने कृषि बिल को लेकर सरकार का खुलेआम समर्थन किया है.

सुप्रीम कोर्ट में चली कार्यवाही के बाद दिल्ली की सरहद से फ़ोन पर बात करते हुए राकेश टिकैत ने कहा कि किसान अपना आंदोलन जारी रखेंगे और अपने आंदोलन के स्थल को भी नहीं बदलेंगे.

उनका कहना था, “हम सुप्रीम कोर्ट का आभार व्यक्त करते हैं कि माननीय मुख्य न्यायाधीश और बेंच के दूसरे न्यायाधीशों ने कम से कम आंदोलन कर रहे किसानों की मुश्किलों को तो समझा. सर्वोच्च अदालत ने आंदोलन करने के अधिकार का भी बचाव किया है. ये बहुत बड़ी बात है.”

मगर टिकैत का कहना है कि बिल को स्थगित करने से किसानों को कुछ नहीं मिलने वाला है. उन्होंने कहा, “हमारी मांग है कि सरकार कृषि क़ानून वापस ले. इसके अलावा हम कुछ नहीं चाहते. वैसे हम क़ानून विशेषज्ञों की राय ले रहे हैं मगर ये तो तय है कि जब तक बिल वापसी नहीं, तब तक घर वापसी नहीं.”

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कमिटी के पक्ष में नहीं थे किसान

सोमवार को सुप्रीम कोर्ट में किसानों की तरफ से दुष्यंत दवे, प्रशांत किशोर, एचएस फूलका और कोलीन गोंजाल्वेज़ आज अदालती कार्यवाही में मौजूद नहीं थे.

किसान यूनियनों ने कल ही स्पष्ट कर दिया था कि वो इस मामले में किसी कमिटी के गठन के पक्ष में नहीं हैं और ये भी कह दिया था कि उनकी तरफ से मगंलवार को सुनवाई के दौरान कोई वकील मौजूद नहीं रहेगा.

इससे पहले संयुक्त किसान मोर्चा ने साझा एक बयान जारी कर कहा कि “सरकार की हठधर्मिता से साफ़ है कि वो क़ानून वापस लेने के सवाल पर कमिटी के सामने राज़ी नहीं होगी.”

लेकिन सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बाद बैठकों का दौर शुरू हो गया है और आंदोलनरत किसान संगठन अपनी आगे की रणनीति को लेकर विमर्श कर रहे हैं.

संयुक्त किसान मोर्चा के लिए काम कर रहे परमजीत सिंह का कहना है कि लगभग सभी संगठन इस पर सहमत हैं कि कमिटी बनाने से कोई हल नहीं निकलने वाला है. वो कहते हैं कि क़ानूनों को अगले आदेश तक स्थगित करने का मतलब ही है कि मामला खिंच जाएगा और बात घूम फिर कर वहीं आ जाएगी जहाँ आज है.

किसान आंदोलन

कृषि मामलों और कृषक इतिहास के जानकार वरिष्ठ पत्रकार अरविन्द कुमार का कहना था कि किसानों को सरकार की नीयत पर इसलिए शक हो रहा है क्योंकि जिस तरीके से इन क़ानून को पारित कराने की प्रक्रिया अपनाई किसान उसे ग़लत मानते हैं.

अरविन्द कुमार कहते हैं कि अगर सरकार इन क़ानूनों को पारित करने से पहले संसद का विशेष सत्र बुला लेती और सदस्य इस पर अपनी राय व्यक्त करते तो शायद सरकार की नियात पर किसानों को शक नहीं होता.

उनका कहना था, “सरकार को अध्यादेश की जगह कृषि क़ानून से संबंधित विधेयक लाना चाहिए था. अगर ऐसा सरकार करती तो तो किसान आक्रोशित ना होते. फिर केंद्रीय मंत्रिमंडल के सदस्यों द्वारा समय-समय पर आंदोलन कर रहे किसानों को लेकर की गई टिप्पणी ने भी किसानों को भड़काने का काम ही किया है.”

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जारी रहेगा आंदोलन

वहीं अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति के संयुक्त सचिव और वकील अवीक साहा ने बीबीसी से बात करते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही के बाद किसान संगठनों के प्रतिनिधि संयुक्त किसान ओरछा के तत्वाधान में मिले और उन्होंने फैसला किया है कि गणतंत्र दिवस पर जो ट्रैक्टर मार्च निकालने का आह्वान किया गया है वो जारी रहेगा.

उन्होंने बीबीसी से बात करते हुए कहा कि ये मार्च तब निकालने की बात कही गई है जब सरकारी कार्यक्रम समाप्त हो जाएगा. वो कहते हैं, “गणतंत्र दिवस पर सरकारी कार्यक्रम के खत्म होने के बाद भारत का नागरिक इस दिवस का जश्न मना सकता है. ये सबका अधिकार है. इसमें किसी की छवि ख़राब होने की बात कहां से आ गई.”

साहा कहते हैं कि किसान संगठनों ने ये भी तय किया है कि वो सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों को चुनौती देंगे क्योंकि सभी एकमत हैं कि जो नीति बनाते हैं वो किसानों से बात करें ना कि अदालत.

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साहा के अनुसार किसान संगठनों ने कहा कि आंदोलन में जो महिलाएं शामिल हैं वो अपनी मर्जी से आई हैं. उनका कहना था कि अदालत को इन आंदोलनकारी महिलाओं को कमज़ोर नहीं समझना चाहिए.

वहीं क्रांतिकारी किसान यूनियन के प्रोफेसर दर्शन पाल का कहना था, “सुप्रीम कोर्ट की कमिटी में चाहे वो बीएस मान हों या बाक़ी के तीन सदस्य, सब सरकार द्वारा लाए गए कृषि क़ानूनों का समर्थन करते आए हैं. ऐसे में ये एक तरफ़ा फैसला ही लेंगे जिससे किसानों का कोई भला नहीं होने वाला है.”

सुप्रीम कोर्ट ने जिस कमिटी के गठन की घोषणा की है उसमें मान के अलावा शेतकारी संगठन के अनिल घनावत, कृषि अर्थशास्त्री अशोक गुलाटी, और इंटरनेशनल फ़ूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट के दक्षिण एशिया के प्रमुख रहे प्रमोद जोशी शामिल हैं.

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कमिटी के सदस्यों को लेकर सवाल

सुप्रीम कोर्ट की ओर से कृषि कानूनों को अगले आदेश तक स्थगित करने के आदेश पर कानूनविदों की राय बँटी हुई है.

जहाँ सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति राजेन्द्र मल लोढ़ा ने कहा कि उनके पास कमिटी की अध्यक्षता करने का प्रस्ताव आया था जिसे उन्होंने ठुकरा दिया, सुप्रीम कोर्ट के ही पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू का कहना है कि न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका की अपनी-अपनी सीमाएं हैं जिसके अन्दर ही तीनों को काम करना चाहिए.

काटजू के अनुसार जजों को ज्यादा सक्रियता से बचना चाहिए और उनकी कार्यशैली कहीं से भी ऐसी नहीं लगनी चाहिए, जिससे ये लगता हो कि वो सरकार चलाने की कोशिश कर रहे हैं. वो कहते हैं कि न्यायपालिका को लोकतंत्र के दूसरे अंगों का सम्मान करना चाहिए और उनके अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण नहीं करना चाहिए.

काटजू सहित दूसरे क़ानूनविदों का भी मानना है कि जो क़ानून संसद ने बनाए हैं उसे निरस्त करने का अधिकार भी संसद को ही होना चाहिए.

काटजू मानते हैं, “अदालत या जज ये तो कह सकते हैं कि अमुक क़ानून ग़ैर-संवैधानिक है या संविधान के हिसाब से ‘अल्ट्रा वायर्स’ है. मगर अदालत या जज क़ानून को लागू होने से रोक नहीं सकते.”

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संवैधानिक सवाल

काटजू के अनुसार सुप्रीम कोर्ट ने सरकार और किसानों के बीच चल रहे गतिरोध को ख़त्म करने के लिए ऐसा किया होगा लेकिन वो मानते हैं कि संविधान की अनदेखी कर ऐसा करना भी ग़लत है.

संवैधानिक विशेषज्ञ गौतम भाटिया ने ट्वीट कर कहा है कि एक तो अदालत किसी क़ानून को निलंबित नहीं कर सकती है. अगर वो ऐसा करती भी है तो उसे पहले इसे ग़ैर-संवैधानिक घोषित करना पड़ेगा.

वो कहते हैं कि कृषि क़ानूनों को स्थगित करने से पहले अदालत ने ऐसा कुछ भी नहीं कहा. उन्होंने सुप्रीम कोर्ट द्वारा कमिटी के गठन पर भी सवाल उठाते हुए कहा कि ये काम अदालत का नहीं है.

दूसरी तरफ कांग्रेस के नेता और पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत किया और कहा कि यह क़दम सही था जबकि सरकार ज़िद पर अड़ी हुई है.

स्वराज इंडिया के प्रमुख योगेन्द्र यादव ने भी ट्वीट कर कहा है कि किसान किसी भी दिन कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर से मिलकर बातचीत करना पसंद करेंगे बजाय सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनाई गई कमिटी के.

कृषि मामलों के विशेषज्ञ देविंदर शर्मा ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर ट्वीट कर कहा कि, “इस कमिटी में कौन-कौन है उसपर ग़ालिब का ये शेर याद आता है ….क़ासिद के आते- आते ख़त इक और लिख रखूँ, मैं जानता हूँ जो वो लिखेंगे जवाब में…”

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