तृणमूल कांग्रेस के रणनीतिकारों का दावा है कि इन नौ जिलों में तृणमूल का ही दबदबा है और भाजपा की सिर्फ इनमें से चार जिलों में उपस्थिति मात्र है। इनके अलावा दस से ज्यादा विधानसभा सीटों वाले दूसरे चार बड़े जिले हैं जिनमें कुल 47 सीटें हैं। इनमें बांकुड़ा की 13, बीरभूम की 11, कोलकाता की 11, मालदा की 12, सीटें शामिल हैं। इस तरह पश्चिम बंगाल के 13 जिलों में कुल 232 सीटें हैं और जीत की कुंजी (चाबी) इन 13 जिलों के मतदाताओं के पास है।
तृणमूल कांग्रेस के रणनीतिकारों का दावा है कि इन 234 सीटों वाले इन 13 जिलों में तृणमूल कांग्रेस भाजपा से बहुत ज्यादा मजबूत है और 180 से ज्यादा सीटें इन्हीं जिलों में से जीतेगी। अपने इसी जमीनी आकलन के आधार पर प्रशांत किशोर अपने ट्वीट में दावा करते हैं कि भाजपा किसी भी हालत में दहाई की संख्या से ज्यादा सीटें नहीं जीत पाएगी। यानी भाजपा 100 का आंकड़ा पार नहीं कर पाएगी, जबकि बहुमत के लिए 148 सीटें चाहिए।
मुस्लिम मतदाता
जहां तक सामाजिक वर्गों के समर्थन का सवाल है तो राज्य के करीब 40 फीसदी मुसलमानों का एकमुश्त समर्थन ममता बनर्जी के साथ हैऔर इसके साथ ही ग्रामीण मतदाताओं का बहुतायत रुझान अभी भी ममता बनर्जी की ही ओर है। जबकि शहरी मतदाताओं में सेंध लगाने में भाजपा को कुछ कामयाबी मिली है। भाजपा खेमा इस बात से उत्साहित है कि लोकसभा चुनावों में बड़ी संख्या में न सिर्फ माकपा और कांग्रेस के कार्यकर्ता और समर्थक उसके साथ आए बल्कि तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ता भी लगातार भाजपा के साथ आ रहे हैं।
लेकिन तृणमूल कांग्रेस के एक नेता जो ममता बनर्जी के बेहद करीबी हैं ने नाम न छापने की शर्त पर दावा किया कि भारी संख्या में तृणमूल के स्थानीय स्तर के कार्यकर्ता जो लोकसभा चुनावों के दौरान पाला बदलकर भाजपा के साथ चले गए थे, वापस तृणमूल में लौट रहे हैं, लेकिन उनकी कोई खबर राष्ट्रीय मीडिया में जगह नहीं पाती है।वहीं तृणमूल का कोई नेता भाजपा में जाता है तो कई दिन तक मीडिया में यही खबर रहती है।
भाजपा का घटता मत प्रतिशत
तृणमूल रणनीतिकार प्रशांत किशोर हालाकि अपनी चुनावी रणनीति को लेकर मीडिया में बहुत ज्यादा नहीं बोलते हैं, लेकिन उनकी टीम से जुड़े लोगों का कहना है कि 2019 के लोकसभा चुनावों के बाद जितने भी चुनाव देश में हुए सबमें लोकसभा चुनावों की तुलना में भाजपा का मत प्रतिशत कम हुआ है। महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड, दिल्ली और बिहार इसके उदाहरण हैं। यहां तक कि अगर लोकसभा चुनावों के मत प्रतिशत से तुलना करें तो जम्मू कश्मीर के जिला विकास परिषदों के चुनावों और मध्य प्रदेश के उपचुनावों में भी भाजपा का मत प्रतिशत कम हुआ है।
इसी आधार पर टीम पीके दावा करती है कि पश्चिम बंगाल में भी भाजपा को विधानसभा चुनावों में वह जन समर्थन नहीं मिलेगा जो लोकसभा चुनावों में मिला था। तब मुद्दे और परिदृश्य अब से अलग थे। उधर भाजपा खेमा एमआईएम नेता असउद्दीन ओवैसी के चुनावी मैदान में उतरने से उत्साहित है और उसे लगता है कि बिहार की ही तरह ओवैसी यहां भी मुस्लिम मतों में बंटवारा करके भाजपा की राह आसान करेंगे। लेकिन टीम पीके इसे खारिज करती है।
उसका मानना है कि बिहार के सीमांचल में ओवैसी मुस्लिम वोटों को बांटने में इसलिए कामयाब हो सके क्योंकि वहां राजद-कांग्रेस गठबंधन के उम्मीदवार कई सीटों पर अपनी जीत का भरोसा नहीं दिला पाए। जबकि पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और ममता बनर्जी मुस्लिमों की पहली और आखिरी पसंद हैं। फिर तेलुगू अंग्रेजी और हिंदी बोलने वाले ओवैसी बंगला भाषियों के बीच कितना असर डाल पाएंगे यह भी बड़ा सवाल है। उधर कांग्रेस और वाम मोर्चे ने मिलकर चुनाव लड़ने की जो घोषणा की है उससे भी तृणमूल खेमा उत्साहित है।
उसका कहना है कि अगर वाम दल और कांग्रेस अपने कार्यकर्ताओं और जनाधार को जो लोकसभा चुनावों में भाजपा के साथ चले गए थे, अपने साथ रोकने में कामयाब रहे तो भाजपा के लिए लोकसभा चुनावों जैसे नतीजे दोहराना मुमकिन नहीं होगा। वहीं भाजपा नेताओं को लगता है कि वाम मोर्चे और कांग्रेस के मजबूत होने से भाजपा विरोधी मतों में बंटवारे का लाभ उसे मिल सकता है। कुल मिलाकर पश्चिम बंगाल के चुनाव में भले ही अभी चार महीने बाकी हैं, लेकिन राज्य की सियासत में जिस तरह तृणमूल और भाजपा के बीच लड़ाई तेज होती जा रही है उससे लगता है कि चुनाव नजदीक आते आते पश्चिम बंगाल में सियासी घमासान कई गुल खिलाएगा।