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बिहार में रामविलास पासवान का देहांत एक ऐसे समय हुआ है जब चुनाव मुश्किल से तीन हफ़्ते दूर है. ऐसे में श्रद्धांजलियों और संवेदनाओं के साथ-साथ कुछ राजनीतिक सवाल भी मंडरा रहे हैं.
जैसे बुनियादी सवाल तो यही उठ रहा है कि पासवान के निधन का क्या चुनाव पर कोई असर पड़ सकता है?
और उसी की छाया तले दूसरे सवाल भी आ जाते हैं, जैसे नीतीश कुमार का क्या होगा, दलित मतों का क्या होगा?
और एक बड़ा सवाल ये भी कि चिराग़ पासवान अपने पिता की विरासत को सँभाल पाएँगे?
पर इन सारे सवालों की पड़ताल के लिए ये जानना ज़रूरी है कि बिहार की राजनीति में रामविलास पासवान का क़द कितना बड़ा था, उनकी पकड़ कितनी मज़बूत थी.
रामविलास पासवान की राजनीति का आधार
रामविलास पासवान का राजनीति में पदार्पण जाति की बुनियाद पर हुआ भी, और नहीं भी.
जाति के आधार पर इसलिए क्योंकि 1969 में अपनी ज़िंदगी का पहला चुनाव उन्होंने जिस सीट से लड़ा और जीता था, वो अनुसूचित जाति के लिए एक सुरक्षित सीट थी. वो पहली बार बिहार की अलौली विधानसभा सीट से एमएलए चुने गए थे. बाद में भी वो हाजीपुर और रोसड़ा की जिन सीटों से लोकसभा गए, वो भी सुरक्षित सीटें थीं.
लेकिन राजनीति में उनके आगमन की वजह केवल जाति थी, ये कहना भी ग़लत होगा. क्योंकि जिस पार्टी के टिकट पर वो जीतकर आए थे, वो संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी थी.
इसलिए ये कहना ग़लत नहीं होगा कि रामविलास पासवान की शुरुआती राजनीति का आधार उनकी समाजवादी विचारधारा थी, जातिगत विचारधारा नहीं.
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मगर इसके बाद बिहार की राजनीति लगातार बदलती गई, 74 में छात्र आंदोलन हुआ, जेपी उससे जुड़े, इमर्जेंसी लगी, जनता पार्टी की सरकार आई, लालू-नीतीश जैसे नए नेता उभरे, मंडल आंदोलन हुआ, राममंदिर आंदोलन हुआ, लालू यादव का दौर आया और समय के साथ-साथ राजनीति ही नहीं राजनेता भी बदलते चले गए.
इसी सब के बीच देखते-देखते समाजवादी रामविलास पासवान की गिनती भी एक दलित नेता के तौर पर होने लगी.
वरिष्ठ पत्रकार अरविंद मोहन कहते हैं, “रामविलास जी धीरे-धीरे दुसाधों के सबसे बड़े नेता बन गए, इसके लिए उन्होंने कोई बहुत मेहनत नहीं की, कोई आंदोलन जैसा नहीं किया, मगर दुसाधों के वो पहले बड़े नेता थे और ये उनके लिए मददगार साबित हुआ, मंत्री बनने के साथ-साथ उनकी राजनीतिक हैसियत भी बड़ी होती गई और ये वोट बैंक मज़बूत होता गया.”
इसी ताक़त के दम पर उन्होंने वर्ष 2000 में जनता दल (यूनाईटेड) से अलग होकर अपनी अलग पार्टी खड़ी कर ली और सत्ता का हिस्सा बने रहे.
हालाँकि, नाम ज़ाहिर ना करने की शर्त पर पटना के एक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक ने पासवान को बिहार की राजनीति में लालू और नीतीश के दौर में हाशिए का नेता बताते हुए कहा कि वे गठजोड़ कर जीतते रहे, पिछले आम चुनाव में भी वो मोदी लहर में जीत गए, वो अपने दम पर जीत पाते, ये संभव नहीं था.

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पटना के वरिष्ठ पत्रकार सुरूर अहमद भी कहते हैं कि रामविलास पासवान दलितों के नेता होने का दावा ज़रूर करते रहे मगर उत्तर प्रदेश में मायावती की ही तरह उन्होंने भी कभी दलितों को किसी मुद्दे पर सड़कों पर उतरकर आंदोलन नहीं करने दिया.
सुरूर अहमद कहते हैं, “उन्होंने कभी टकराव की राजनीति नहीं की, ना आंदोलन की राजनीति की. मायावती की ही तरह हमेशा अपने आप को चुनावी राजनीति से मज़बूत करने की कोशिश करते रहे, हर चुनाव में ऐसा होता है कि ये बड़ी पार्टियों से सौदेबाज़ी करते हैं. इसी दम पर राजनीति चलाते रहते हैं कि अगर सात-आठ परसेंट वोट मिल गया तो फिर फ़ायदा ही फ़ायदा है.”
इस चुनाव पर क्या होगा असर?
रामविलास पासवान की पार्टी ने चुनाव से पहले ही बिहार में एनडीए से अलग होने की घोषणा कर दी थी, यानी वो जेडी(यू) के ख़िलाफ़ उम्मीदवार खड़े करेगी.
और अब इसी बीच रामविलास पासवान का भी देहांत हो गया.
विश्लेषक बताते हैं कि इससे लोक जनशक्ति पार्टी को फ़ायदा हो सकता है और नीतीश कुमार को नुक़सान, क्योंकि इससे दलित वोट बँट सकता है.

पटना स्थित वरिष्ठ पत्रकार लव कुमार मिश्र बताते हैं कि अभी मीडिया में चिराग़ पासवान की बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा को 24 सितंबर को लिखी एक चिट्ठी के सामने आने से बात और बिगड़ गई है जिसमें उन्होंने लिखा है कि नीतीश कुमार ने रामविलास पासवान के राज्यसभा नामांकन को लेकर भी आना-कानी की थी.
लव मिश्र कहते हैं, “ऐन चुनाव के समय रामविलास पासवान का नहीं रहना और फिर चिराग़ पासवान की चिट्ठी का आना एक संवेदनशील मुद्दा है जिसका असर गाँवों में पड़ता है, इसका नीतीश को नुक़सान होगा.”
वो इसकी वजह बताते हुए कहते हैं कि अभी रामविलास पासवान की सहानुभूति में एलजेपी को वोट ज़रूर मिलेंगे.
अरविंद मोहन बताते हैं कि इस चुनाव में भी पासवान की पार्टी कुछ उसी तरह की भूमिका निभा सकती है जैसा उसने 2009 के चुनाव में निभाई थी.
2009 के आम चुनाव में रामविलास पासवान ने कांग्रेस का हाथ झटक लालू यादव का हाथ थामा था मगर इस गठबंधन की करारी हार हुई थी.
अरविंद मोहन कहते हैं, “2009 के चुनाव में वो हार गए, लेकिन इससे बड़ी भूमिका उन्होंने लालू यादव को हरवाने में निभाई, संयोग ऐसा है कि इस चुनाव में भी अगर नीतीश कुमार हारे तो उसमें भी रामविलास पासवान की पार्टी की भूमिका बड़ी हो जाएगी.”
महादलित वोट

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बिहार में लालू यादव के 1990 से क़ायम 15 साल पुराने राजनीतिक क़िले को नीतीश कुमार ने 2005 में ध्वस्त कर दिया और फिर उन्होंने बिहार की राजनीति में लालू और रामविलास पासवान की राजनीति का तोड़ निकालने के लिए महादलित योजना शुरू की.
इसमें कहा गया कि दलितों में भी जो सबसे ज़्यादा दलित हैं उन्हें महादलित माना जाएगा. शुरू में जो 18 जातियाँ शामिल की गईं, उनमें रामविलास पासवान की जाति दुसाध शामिल नहीं थी.
मगर 2018 में उन्हें भी इसमें शामिल कर लिया गया. आज की तारीख़ में बिहार में दलित-महादलित अलग-अलग नहीं रहे. वहाँ अब 23 अनुसूचित जातियाँ हैं.
इनमें रविदास जाति की संख्या सबसे ज़्यादा है, उनसे थोड़ी ही कम संख्या दुसाध जाति की है. मोटे तौर पर दोनों की संख्या लगभग 50-50 लाख है.
तो क्या अब भी नीतीश के साथ है ये महादलित वोट बैंक?
लव कुमार मिश्र कहते हैं, “महादलित का मुद्दा 2010 के चुनाव में तो चला, मगर 2015 में काम नहीं आया, उस चुनाव में यदि वो लालू यादव के साथ नहीं जाते तो उनकी सरकार नहीं बनती.”
उनका मानना है कि अब पासवान की पार्टी के अलग होने से उस वोट बैंक में भी और दरार आ जाएगी.
चिराग़ सँभालेंगे पिता की विरासत?

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जानकारों का मानना है कि अभी इस बारे में दावे से कुछ भी कह सकना मुश्किल है लेकिन चिराग़ के सामने चुनौतियाँ हैं तो संभावनाएँ भी हैं.
अरविंद मोहन बताते हैं कि रामविलास पासवान बिहार में दलित राजनीति का चेहरा ज़रूर थे लेकिन काम के नाम पर उन्होंने ये किया कि दलितों की सुरक्षा के लिए संविधान या क़ानून में जो अधिकार दिए गए थे, उन्होंने उनकी रखवाली की, उनके साथ जब भी कोई छेड़छाड़ की कोशिश हुई तो उसका विरोध किया.
वो कहते हैं, “चिराग़ पासवान की परीक्षा ये होगी कि वो अपने पिता की तरह का स्टैंड ले पाते हैं कि नहीं. अभी तक तो वो रामविलास पासवान के बेटे से ज़्यादा कुछ नहीं हैं.”
लेकिन वो साथ ही ये बात भी ध्यान दिलाते हैं कि बिहार में जेपी आंदोलन से उपजे नेताओं की पीढ़ी धीरे-धीरे अस्त हो रही है और ऐसे में वहाँ नई राजनीति के लिए जो संभावना पैदा होती है उसमें तेजस्वी यादव की तरह चिराग़ पासवान भी दावेदार होंगे.
वहीं सुरूर अहमद का मानना है कि चिराग़ ने अपने पिता की विरासत को 2014 के आम चुनाव से ही संभाला हुआ है जब उन्होंने एनडीए के साथ चुनाव में उतरने का फ़ैसला किया.
सुरूर बताते हैं, “रामविलास पासवान ख़ुद कहते थे कि उनके बेटे ने उनको बचा लिया, चिराग़ विरासत पहले ही से संभाल चुका है.”

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लव कुमार मिश्र मानते हैं कि चिराग़ पासवान अपने पिता से काफ़ी अलग हैं, रामविलास पासवान काफ़ी लोकप्रिय व्यवहार कुशल और लोगों का काम करवाने वाले नेता थे, जबकि चिराग़ की छवि महानगर के नेता जैसी है.
मगर वो साथ ही कहते हैं, “अगर नीतीश हार गए तो उसका सारा श्रेय चिराग़ को मिल जाएगा, वो बड़े नेता बन जाएँगे, उनको मोदी का आशीर्वाद मिला हुआ है.”
नाम ज़ाहिर ना करने वाले राजनीतिक विश्लेषक भी बताते हैं कि बीजेपी को चिराग़ पासवान से बहुत उम्मीदें होंगी क्योंकि उन्हें एक ऐसा ही कठपुतली नेता चाहिए जैसा कर्पूरी ठाकुर के ज़माने में रामसुंदर दास थे.
वो कहते हैं रामविलास पासवान की बिहार का मुख्यमंत्री बनने की ख़्वाहिश पूरी नहीं हो सकी और वो अपना ये सपना चिराग़ को सौंपकर गए हैं.
लेकिन वो बिहार के इतिहास को याद दिलाते हुए सवाल करते हैं, “कर्पूरी ठाकुर की विरासत को उनका बेटा संभाल पाया? दारोगा प्रसाद राय की विरासत को उनका बेटा संभाल पाया? लालू की विरासत को उनका बेटा संभाल पाया?”
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