…जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण और संयुक्त राष्ट्र के हिंदी ट्वीट से बढ़ा देश का गौरव – अमर उजाला

उस अंतरराष्ट्रीय एकजुटता की, जिसके आधार पर संयुक्त राष्ट्र की स्थापना हुई, जितनी आवश्यकता आज है, उतनी पहले कभी नहीं थी। आज अब हम अन्योन्याश्रित संसार कहते हैं तो क्या हमारी आपसी एकता बढ़ी है। हमें सोचने की जरूरत है। क्या कारण है कि संयुक्त राष्ट्र जैसा इतना अच्छा प्लेटफार्म हमारे पास होने के बाद भी अनेक जी समूह बनाते चले गए हम। कभी जी4 होगा, कभी जी7 होगा, कभी जी20 होगा। हम बदलते रहते हैं और हम चाहें या न चाहें, हम भी उन समूहों में जुड़े हैं। भारत भी उसमें जुड़ा है। 

लेकिन क्या आवश्यकता नहीं है कि हम जी1 से आगे बढ़ कर के जी-ऑल की तरफ कदम उठाएं। और जब संयुक्त राष्ट्र अपने 70 वर्ष मनाने जा रहा है, तब ये जी-ऑल का वातावरण कैसे बनेगा। फिर एक बार यही मंच हमारी समस्याओं के समाधान का अवसर कैसे बन सके। इसकी विश्वसनीयता कैसे बढ़े, इसका सामर्थ्य कैसे बढ़े, तभी जा कर के यहां हम संयुक्त बात करते हैं। लेकिन टुकड़ों में बिखर जाते हैं, उसमें हम बच सकते हैं, एक तरफ तो हम यह कहते हैं कि हमारी नीतियां परस्पर जुड़ी हुई हैं और दूसरी तरफ हम जीरो संघ के नजरिये से सोचते हैं। अगर उसे लाभ होता है तो मेरी हानि होती है, कौन किसके लाभ में है, कौन किसके हानि में है, यह भी मानदंड के आधार पर हम आगे बढ़ते हैं। 

निराशावादी या आलोचनावादी की तरह कुछ भी नहीं बदलने वाला है। एक बहुत बड़ा वर्ग है, जिसके मन में है कि छोड़ो यार, कुछ नहीं बदलने वाला है, अब कुछ होने वाला नहीं है। ये जो निराशावादी और आलोचनावादी माहौल है, यह कहना आसान है। परंतु अगर हम ऐसा करते हैं तो हम अपनी जिम्मेदारियों से भागने का जोखिम उठा रहे हैं। हम अपने सामूहिक भविष्य को खतरे में डाल रहे हैं। आइए, हम अपने समय की मांग के अनुरूप अपने आप को ढालें। हम वक्त की शांति के लिए कार्य करें। 

कोई एक देश या कुछ देशों का समूह विश्व की धारा को तय नहीं कर सकता है। वास्तविक अन्तरराज्यीय होना, यह समय की मांग है और यह अनिवार्य है। हमें देशों के बीच सार्थक संवाद एवं सहयोग सुनिश्चित करना है। हमारे प्रयासों का प्रारंभ यहीं संयुक्त राष्ट्र में होना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार लाना, इसे अधिक जनतांत्रिक और भागीदारी परक बनाना हमारे लिए अनिवार्य है। 

20वीं सदी की अनिवार्यताओं को प्रतिविदित करने वाली संस्थाएं 21वीं सदी में प्रभावी सिद्ध नहीं होंगी। इनके सम्मुख अप्रासंगिक होने का खतरा प्रस्तुत होगा, और भी आग्रह से कहना चाहता हूं कि पिछली शताब्दी के आवश्यकताओं के अनुसार जिन बातों पर हमने बल दिया, जिन नीति-नियमों का निर्धारण किया वह अभी प्रासंगिक नहीं है। 21वीं सदी में विश्व काफी बदल चुका है, बदल रहा है और बदलने की गति भी बड़ी तेज है। ऐसे समय यह अनिवार्य हो जाता है कि समय के साथ हम अपने आप को ढालें। हम परिवर्तन करें, हम नए विचारों पर बल दें। अगर ये हम कर पायेंगे तभी जाकर के हमारी प्रासंगिकता रहेगी। हमें अपने सभी मतभेदों को दरकिनार कर आतंकवाद से लड़ने के लिए सम्मिलित अंतरराष्ट्रीय प्रयास करना चाहिए।

Related posts