Bihar Assembly Elections 2020: उपेंद्र कुशवाहा की चूक ने बिहार की राजनीति में बना दिया उछूत – News18 हिंदी

अशोक मिश्रा
पटना.
बिहार में विधानसभा चुनाव (Bihar Assembly Election 2020) का बिगुल बज चुका है. शुक्रवार को निर्वाचन आयोग ने ऐलान किया कि राज्य में तीन चरणों में चुनाव होंगे. हालांकि आयोग के ऐलान से पहले राज्य के लिए केंद्र से लेकर राज्य स्तर तक घोषणाओं का दौर जारी था और नेता तथा दल अपने पाले बदल रहे थे. इन्हीं पाला बदलने वालों में से एक हैं राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (Rashtriya Lok Samata Party- RLSP) के अध्यक्ष और पूर्व केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा (Upendra Kushwaha). कुशवाहा एक महत्वाकांक्षी नेता हैं जो बिहार के शीर्ष पद पर पहुंचना चाहते हैं लेकिन उनके फैसले उन्हें वहां तक पहुंचने नहीं दे रहे हैं. कुशवाहा अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए इस कदर बेताब हैं कि वह कोई ना कोई चूक कर बैठते हैं.

राजनीतिक मंच की तलाश कर रहे कुशवाहा
कुशवाहा इस हद तक अपनी सियासी गहमा-गहमी के दलदल में फंस चुके हैं कि वे बिहार की राजनीति के गैरजरूरी शख्स हो गए हैं. आगामी राज्य विधानसभा चुनाव से ठीक पहले राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के नेतृत्व वाले महागठबंधन से बाहर होने बाद, कुशवाहा अब बिहार में राज्य विधानसभा चुनावों के जरिए अनुकूल सामाजिक समीकरण के साथ एक राजनीतिक मंच की तलाश कर रहे हैं.माना जा रहा है कि  कि वह राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में शामिल होने या जन अधिकार मोर्चा (JAP) के प्रमुख राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव के साथ गठबंधन में तीसरा मोर्चा बनाने के लिए बेताब हैं. अगर थर्ड फ्रंट बनता है तो कुछ अन्य दल भी इसमें शामिल हो सकते हैं.

हालांकि एनडीए में शामिल होने की राह में कुशवाहा के सामने कई दिक्कते हैं. सबसे पहले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार उन्हें एनडीए में शामिल नहीं होने देंगे. दोनों नेता एक दूसरे को नापसंद करते हैं. दूसरा महागठबंधन में कुशवाहा की सीटों की संख्या एनडीए में संभव नहीं हो सकती है, क्योंकि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), जनता दल (यू) और लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) के बीच पहले से ही सीटों पर रस्साकशी जारी है.

हकीकत यह है कि पिछले विधानसभा और लोकसभा चुनावों में खराब चुनावी प्रदर्शन के कारण पिछले कुछ वर्षों में कुशवाहा की राजनीति कमजोर हो गई है. बिहार की राजनीतिक वास्तविकताओं के बारे में उनकी सतही धारणा ने उन्हें काफी परेशानी में डाल दिया, जो उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के लिए बाधा बन गया.

कुशवाहा ने 1985 में राजनीति में कदम रखा और युवा लोकदल के राज्य महासचिव बने. वह जॉर्ज फर्नांडीस और नीतीश कुमार की समता पार्टी में शामिल हो गए और इसके महासचिव बने. वह साल 2000 में राज्य विधानसभा के लिए चुने गए और लोकसभा में भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी के चुनाव के साथ घटनाओं के बाद अचानक से नेता विपक्ष बन गए. नीतीश तब कुशवाहा के गुरु थे और 2004 में उन्हें बिहार विधानसभा में विपक्ष का नेता बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. हालांकि उस वक्त कुशवाहा पहली बार विधायक बने थे.

हालाँकि, कुशवाहा ने सत्ता के हिस्से में विभिन्न सामाजिक न्याय समूहों के बीच कोएरी (कुशवाहा) जाति के हाशिए के मुद्दे को उठाना शुरू कर दिया. अंततः उन्हें जनता दल (यू) से 2007 में बर्खास्त कर दिया गया.  उन्होंने फरवरी 2009 में महाराष्ट्र के तत्कालीन उपमुख्यमंत्री छगन भुजबल के समर्थन से राष्ट्रीय जनता पार्टी (आरएसपी) लॉन्च किया. नौ महीने बाद, कुशवाहा के RSP का नवंबर 2009 में फिर से जनता दल (यू) में विलय हो गया, जिसके बाद नीतीश कुमार के साथ उनके संबंधों में फिर से सुधार आ गया.

नीतिश के चलते छोड़ा NDA
हालांकि वह जल्द ही नीतीश कुमार की कार्यशैली से नाराज हो गए और आरोप लगाया कि सही तरीके से सरकार नहीं चलाई गई. उन्होंने आरोप लगाया कि नीतीश ने निरंकुश तरीकों से सरकार चलाई और उन्होंने जनता दल (यू) को गंवा दिया. उस वक्त कुशवाहा राज्यसभा सदस्य थे. फिर उन्होंने जनता दल (यू) से इस्तीफा दे दिया.

कुशवाहा ने 2013 में आरएलएसपी की स्थापना की और राजग में शामिल हो गए क्योंकि नीतीश कुमार तब तक राजग छोड़ चुके थे. वह लालू प्रसाद के नेतृत्व वाले राजद गठबंधन में शामिल हो गए थे. 2014 के लोकसभा चुनावों में आरएलएसपी ने तीनों सीटों पर जीत हासिल की. जिसमें काराकाट, जहानाबाद और सीतामढ़ी शामिल है. कुशवाहा काराकाट सीट से चुने गए और नरेंद्र मोदी सरकार में राज्यमंत्री बनाए गए. साल 2015 के बाद के राज्य विधानसभा चुनावों में, कुशवाहा की पार्टी एनडीए का हिस्सा थी और उसने बिहार की 243 विधानसभा सीटों में से 23 पर चुनाव लड़ा था. हालांकि, उसे केवल दो सीटों पर जीत मिली.

जब नीतीश कुमार ने महागठबंधन छोड़ दिया और साल 2017 में एनडीए में फिर से शामिल हो गए, तो कुशवाहा ने शिक्षा के क्षेत्र में कथित कुप्रबंधन और बिगड़ती कानून व्यवस्था पर नीतीश कुमार सरकार को घेरकर नाराजगी दिखानी शुरू कर दी.

साल 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले, कुशवाहा ने अपनी पार्टी के लिए तीन से अधिक लोकसभा सीटों के लिए मांग की. उनके सहयोगी और जहानाबाद के सांसद अरुण कुमार ने पार्टी छोड़ दी थी. ऐसे में कुशवाहा को मौजूदा दो सीटों- काराकाट और सीतामढ़ी की पेशकश की गई. लेकिन कुशवाहा भाजपा के सतीश चंद्र दुबे वाली वाल्मिकीनगर सीट भी चाहते थे.

यादव-कोएरी वोट करना चाहते थे एक
आखिरकार उन्होंने महागठबंधन का रुख किया और पांच सीटों पर  चुनाव लड़ा. कुशवाहा ने खुद दो सीटों- काराकाट और उजियारपुर से चुनाव लड़ा. लेकिन वह दोनों सीटों से हार गए और उनकी पार्टी एक भी सीट जीतने में नाकाम रही. 2019 के लोकसभा चुनावों में  खाता ना खोल पाने के बाद RLSP के दो विधायकों – ललन पासवान और सुधांशु शेखर और एमएलसी संजीव सिंह श्याम जनता दल (यू) में शामिल हो गए. विधायकों ने कुशवाहा के एनडीए के साथ संबंधों को खत्म करने और महागठबंधन में शामिल होने के फैसले को गलत बताया.

2014 के लोकसभा चुनावों में अपनी जीत के बाद, कुशवाहा ने खुद को कोएरी जाति के एक उभरते हुए नेता ’के रूप में कल्पना की थी, जिसमें उनके समुदाय के वोटों को पार्टी या उनकी पसंद के गठबंधन को दिला सकते थे. उन्होंने प्रसिद्ध लव-कुश (कुर्मी-कोएरी) को एक करने की कोशिश की और कोएरी पुनरुत्थान के लिए राजनीतिक और प्रशासनिक क्षमता हासिल करने के लक्ष्य से काम किया.

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वह बिहार के सीएम बनना चाहते हैं. कुशवाहा ने स्पष्ट रूप से घोषणा की है कि लालू प्रसाद के नेतृत्व में यादवों के 15 साल के शासन, नीतीश कुमार के नेतृत्व में कुर्मियों के 15 साल के शासन के बाद बिहार में शासन करने की बारी अब कोएरियों की है. यह अलग बात है कि कुशवाहा की महत्वकांक्षाएं बहुत हैं, लेकिन उनके पास एक विशेष जाति समूह के नेता और अन्य जाति समूहों और समुदायों के बीच स्वीकार्य नेता बनने के लिए आवश्यक राजनीतिक स्थिरता और समर्पण का अभाव है.

ऐसा लगता है कि बिहार के राजनीतिक क्षितिज पर उभरने से पहले वह अपने आकर्षण को खो चुके है. वह जनता के बीच अपनी स्वीकार्यता से कहीं ज्यादा महत्वाकांक्षा पर ध्यान देते हैं. कुशवाहा ने यादव और कोएरी को एक करने की कोशिश की. यादव कुल आबादी का लगभग 12 प्रतिशत हैं, बिहार में कुल मतदाताओं का 6 प्रतिशत कोएरी हैं.

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