Mirza Ghalib Death Anniversary: जब 62 रुपये के लिए दिल्ली से कोलकाता गए गालिब

Publish Date:Sat, 15 Feb 2020 10:17 AM (IST)

नई दिल्ली [संजीव कुमार मिश्र]। Mirza Ghalib Death Anniversary: अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध में मिर्जा गालिब के चाचा मिर्जा नसरुल्लाह बेग को 400 घुड़सवार फौजियों के दस्ते का अधिकारी नियुक्त किया गया था। ब्रिटिश आम्र्ड फोर्स में इनकी नियुक्ति कमांडर इन चीफ लॉर्ड लेक ने 1700 रुपये प्रति माह सैलरी पर की थी। जब 1806 में इनकी मौत हुई तो उस समय इनके परिवार की पेंशन 10 हजार रुपये सलाना सुनिश्चित की गई। कहने को तो यह पेंशन ईस्ट इंडिया कंपनी देती थी, लेकिन इतिहासकारों की मानें तो हकीकत यह थी कि फिरोजपुर झिरका इस्टेट पेंशन वहन करता था। यह पेंशन उस समय भी चालू रही जब मिर्जा गालिब लोहारू के नवाब के छोटे भाई की बहन उमराव से शादी किए। शादी के बाद भी पेंशन लोहारू और झिरका के नवाब की ओर से ही अनवरत दी जाती रही। 1822 में अहमद बख्श खान जो लोहारू और झिरका के नवाब थे, ने अपने बड़े बेटे नवाब शमसुद्दीन खान के उस फैसले का साथ दिया, जिसमें उन्होंने बेग के परिवार को मिलने वाली पेंशन घटाकर तीन हजार रुपये कर दिया। इसमें से हर महीने गालिब को भी साढ़े बासठ रुपये मिलते थे। पारिवारिक संबंधियों की मदद के बावजूद जब मामला नहीं निपटा तो गालिब ने कानूनी मदद लेने की सोची।

कोलकत्ता जाने के दौरान कई शहरों से होकर गुजरे
दरअसल, 1803 में ही ईस्ट इंडिया कंपनी ने दिल्ली में अपनी उपस्थिति लाल किले में बतौर रेजिडेंट सर चाल्र्स मेटकाफ की नियुक्ति के साथ कर दी थी। गालिब ने रेजिडेंट से इस सिलसिले में रायशुमारी की तो उन्होंने बोला कि गर्वनर जनरल कोलकाता में बैठते हैं, वो ही इस मसले पर कुछ कर सकते हैं। 1826 में गालिब ने कोलकाता जाकर गर्वनर जनरल विलियम एमहस्र्ट से मिलने का निश्चय किया। उस समय जल्दी कोलकाता पहुंचने के लिए सफर में बोट सबसे उपयुक्त साधन था। लेकिन आर्थिक तंगी में चल रहे गालिब ने घोड़ा सवारी, बैलगाड़ी और पालकी से सफर का निश्चय किया। यात्रा के दौरान गालिब लखनऊ, कानपुर, बांदा, इलाहाबाद, बनारस और मुर्शिदाबाद रुके।

गालिब ने सफर का विभिन्न नज्मों के जरिये जिक्र किया है। कई इतिहासकारों ने भी उनके रोचक सफर के बारे में लिखा है। इतिहासकार सैफ महमूद ने दिल्ली में लिखा है कि लखनऊ तक सफर के दौरान गालिब बीमार पड़ गए थे। उन्होंने कुछ महीने यहीं आराम करने का फैसला किया। उस समय अवध के राजा नवाब नसीरुद्दीन हैदर शाह थे व राजधानी लखनऊ थी। गालिब ने नवाब से मिलने की इच्छा जाहिर की, लेकिन बदले में दो शर्त भी रख दिया। पहली शर्त यह थी कि वो नवाब को कोई नजराना पेश नहीं करेंगे। दूसरी शर्त यह थी कि जब गालिब दरबार में प्रवेश करेंगे तो नवाब उनके सम्मान में खड़े होंगे। नवाब ने पहली शर्त तो मंजूर की, लेकिन दूसरी पर उन्होंने एतराज जताया, जिस कारण गालिब उनसे मिले बिना ही चले गए। उनका अगला पड़ाव बांदा था। बांदा के नवाब जुल्फिकार अली, गालिब को जानते थे। उन्होंने गालिब से मुलाकात के दौरान आर्थिक मदद का भी प्रस्ताव रखा।

दिलचस्प है नवाब व गालिब में बातचीत का प्रसंग
बनारस के लिए निकलते समय नवाब व गालिब के बीच बातचीत का एक प्रंसग बहुत दिलचस्प है। नवाब विदा करते समय बोले, अच्छा मिर्जा, खुदा हाफिज। तुम्हें अल्लाह के सुपुर्द किया। गालिब तपाक से बोले- वाह नवाब, उसने तो आप के सुपुर्द किया था, आप फिर उसे ही सुपर्द किए दे रहे हैं। गालिब अगस्त 1827 में बनारस पहुंचे थे। एक महीने के प्रवास के दौरान गालिब को यह शहर इस कदर पसंद आया कि फारसी में 108 मिसरों की एक मसनवी लिखी। उन्होंने शहर को चिराग-ए-दैर अर्थात मंदिरों का दीप कहा।

यहीं बनारस से गालिब एक बोट के जरिये फरवरी 1828 में कोलकाता पहुंचे। यहां वो मिर्जा अली सौदागर की हवेली में दस रुपये महीने के किराये पर एक साल रहे, लेकिन यहां प्रवास भी काम नहीं आया। पहले तो गर्वनर जनरल ने पेंशन चालू करने से मना कर दिया। उन्हेंने ब्रिटिश रेजिडेंट के जरिये शिकायत दर्ज कराने को कहा। गालिब ने किसी तरह कुछ सामान बेचकर पैसे का बंदोबख्त किया और डाक द्वारा मामले से जुड़े कागजात तत्कालीन दिल्ली के प्रसिद्ध वकील पंडित हीरानंद को भेजा। उस समय मेटकाफ की जगह रेजिडेंट के रूप में एडवर्ड कोलब्रुक थे। एडवर्ड व्यक्तिगत रूप से गालिब को जानते थे, लेकिन जब तक एडवर्ड तक मामला पहुंचता, तब तक उनका भी स्थानांतरण हो गया। बाद में आए रेजिडेंट ने मना कर दिया था। गालिब परेशान होकर अगस्त 1829 में दिल्ली आ गए। उनकी मायूसी का अंदाजा उनके नज्म से लगता है-

कलकत्ते का जो जिक्र किया तू ने हम-नशीं
इक तीर मेरे सीने में मारा कि हाए हाए ।।
दिल्ली में गालिब की पत्नी उमराव बेगम का भाई मिर्जा शमसुद्दीन अहमद खान एक दिन मिला तो बताया कि उसकी रेजिडेंट विलियम फ्रेजर से बनती है। वो पेंशन चालू करा सकता है, हालांकि कुछ पैसे खर्च होने की बात कही। गालिब ने किसी तरह उधार लेकर पैसे का इंतजाम किया लेकिन पेंशन चालू नहीं हो पायी। उलटे 22 मार्च 1835 को फ्रेजर की हत्या के आरोप में शमसुद्दीन को ही पकड़कर फांसी दे दी गई। इस तरह पेंशन की सभी उम्मीदें लगभग खत्म हो गईं।
Posted By: JP Yadav

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Source: Jagran.com

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