क्या दिल्ली में केजरीवाल की रिकॉर्ड जीत से हिल गई है बीजेपी, बिहार और बंगाल में चुनावी रणनीति को लेकर उलझी!

तेजस्वी यादव को महागठबंधन का नेता मानने के खिलाफ हुए कई दल बिहार की राजनीति की कभी धुरी रही राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव की अनुपस्थिति में महागठबंधन के घटक में शामिल कई दल पूर्व डिप्टी सीएम व राजद नेता तेजस्वी यादव महागठबंधन का नेता मानने के खिलाफ हैं और शरद यादव को अपना नेता घोषित किया है। इनमें राष्ट्रवादी लोक समता पार्टी के प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा, हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (HAM)प्रमुख जीतनराम मांझी और विकासशील इंसान पार्टी (VIP) के प्रमुख मुकेश शाहनी का नाम शामिल है। बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में अकेले चुनाव लड़ सकती है कांग्रेस महागठबंधन में घटक दल में शामिल कांग्रेस भी बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में अकेले चुनाव लड़ने का फैसला ले सकती है। हालांकि दिल्ली में रिकॉर्ड दूसरी बार बड़ी जीत के साथ सत्ता पर काबिज होने जा रही अरविंद केजरीवाल की नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी ने बिहार विधानसभा चुनाव में ताल ठोंककर नया राजनीतिक समीकरण बना दिया है। अगर केजरीवाल की पार्टी बिहार विधानसभा चुनाव में उतरती है, तो वोट कटवा की भूमिका में आ सकती है, जिससे सत्तासीन बीजेपी-जदयू गठबंधन को अधिक नुकसान पहुंच सकता है। महागठबंधन में जाने से जदयू चीफ नीतीश कुमार को चौतरफा घाटा हुआ वर्ष 2015 में विधानसभा चुनाव में पिछले बिहार विधानसभा चुनाव में जदयू का वोट शेयर घटकर 29. 21 फीसदी हो गया था और बीजेपी का वोट शेयर 21 फीसदी था, जिससे दोनों ने क्रमश 71 और 53 विधानसभा सीटों पर कब्जा किया था, जबकि राजद का वोट शेयर 32. 92 फीसदी और 11.11 फीसदी वोट शेयर के साथ कांग्रेस ने 27 सीटों पर राजद ने सर्वाधिक 80 सीटों पर कब्जा किया था। हालांकि महागठबंधन के साथ चुनाव लड़ने पर पार्टी को हुए नुकसान और राजद के साथ रहकर अपनी छवि को बिगाड़ता देख नीतीश कुमार ने जल्द ही महागठबंधन को अलविदा कह दिया और बीजेपी के साथ मिलकर बिहार में सरकार बना ली थी। NDA में लौटते ही बिहार में 2 से बढ़कर 16 हो गई जदयू की लोकसभा सीट इसका फायदा भी नीतीश कुमार और जदयू को लोकसभा चुनाव 2019 में हुआ। एनडीए सहयोगी रही जदयू ने लोकसभा चुनाव 2019 बिहार के 16 लोकसभा सीटों पर विजय दर्ज की थी जबकि महागठबंधन में शामिल कांग्रेस को छोड़कर सारे दल बुरी तरह धाराशाई हुए थी। बिहार लोकसभा के 1 सीट पर केवल कांग्रेस उपस्थित दर्ज करवा पाई जबकि एनडीए सहयोगी बीजेपी ने 17, जदयू,ने 16 और एलजेपी ने बिहार के कुल 40 लोकसभा सीटों में से 39 सीटों पर कब्जा कर लिया था। नीतीश कुमार को महागठबंधन से अलग होने का बड़ा फायदा मिला नीतीश कुमार को महागठबंधन से अलग होने का बड़ा फायदा मिला और उस कदम में नीतीश अपनी पुरानी छवि को भी सहेजने में सफल हुए। वरना वर्ष 2014 लोकसभा चुनाव में अकेले लड़ी जदयू को लोकसभा चुनाव में जहां 2 सीट हासिल हुए थे, वहीं, 2015 विधानसभा चुनाव में महागठबंधन के साथ खड़े होने से जदयू दूसरे नंबर की पार्टी बन गई जबकि राजद नंबर पार्टी बनकर उभरी थी। महागठबंधन में जाने की गलती को हालांकि नीतीश ने जल्दी से सुधार लिया। इसलिए माना जा रहा है कि नीतीश बिहार विधानसभा चुनाव तक कम से कम सेक्युलर छवि के नाम पर बीजेपी का साथ नहीं छोड़ने वाले हैं और बीजेपी के साथ ही चुनाव मैदान में उतरेंगे। लोकसभा चुनाव 2019 में बंगाल खिसक गई ममता दीदी की जमीन पश्चिम बंगाल का भी चुनावी गणित लोकसभा चुनाव 2019 के बाद से गड़बड़ाया हुआ है। टीएमसी को लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने कड़ी टक्कर दिया था और बीजेपी पहली बार ममता के गढ़ में न केवल चढ़कर चुनावी कैंपेन किया बल्कि रिकॉर्ड 18 सीट जीतने में कामयाब रही। इस चुनाव में बीजेपी को वोट शेयर 40.23 फीसदी था, जो टीएमसी के वोट शेयर 43.28 से महज 3 फीसदी कम था। यही कारण है कि बीजेपी के आक्रामक कैंपे को देखते हुए ममता बनर्जी ने विधानसभा चुनाव 2021 में अपने परंपरागत वोटरों के अलावा जातिगत वोटर को साधने में जुट गई हैं। हार से घबराई ममता बनर्जी OBC और जनजातियों वोटर को लुभाने में जुटीं टीएमसी चीफ ममता बनर्जी बीजेपी को विधानसभा चुनाव में निपटने के लिए नई रणनीति के तहत 35 फीसदी वोट बैंक वाले ओबीसी और जनजातियों वोटरों को साधने में जुटी हुई हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि हाल में झारखंड में हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी जनजातियों और ओबीसी वोटरों ने वोट नहीं दिया था, जिससे रघुवर दास के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार हारकर सत्ता से बाहर हो गई थी। बंगाल के जंगलमहल क्षेत्र के कुर्मी व आदिवासी वोटरों पर ममता की नज़र ममता ने पश्चिम बंगाल के जंगलमहल क्षेत्र में कुर्मी और आदिवासी वोटों को अपने खेमे में लाने में जुटी हुई हैं। जंगलमहल क्षेत्र पुरुलिया, बांकुरा और पश्चिमी मिदना पुर के वन क्षेत्र वाले इलाके में आते हैं, जिसके अंतर्गत कुल 6 लोकसभा सीटें आती हैं। माना जा रहा है कि कुर्मी वोटरों को साधने के लिए टीएमसी जंगलमहल क्षेत्र में माओवाद समर्थित लालगढ़ आंदोलन का लोकप्रिय चेहरा रहे छत्रधर महतो को आगे कर सकती है। ऐसा करके टीएमसी विधानसभा चुनाव में जंगलमहल क्षेत्र में मौजूद 35 फीसदी ओबीसी और जनजातीयक वोटरों को अपने पाले में करना चाहती है, क्योंकि इन्हीं दोनों समुदायों की बदौलत ही बीजेपी ने इस क्षेत्र की चार लोकसभा सीटों पर जीत हासिल की थी। बीजेपी ने जंगलमहल क्षेत्र में हुए पंचायत चुनाव में जीती थीं 150 सीटें बीजेपी ने पंचायत चुनाव में भी 150 सीटें यहीं से हासिल की थी। इतना ही नहीं, लोकसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल के 18 सीटों पर कब्जा करने वाली बीजेपी की जीत में ओबीसी और जनजातिए वोटरों का बड़ा योगदान था, जिन्हें बीजेपी का कट्टर वोटर माना जाता है। चूंकि जंगलमहल क्षेत्र का महतो समुदाय आजसू की समर्थक थी, लेकिन झारखंड में अब बीजेपी-आजसू अलग हो चुके हैं, इसलिए टीएमसी को लगता है कि ऐसे में महतो समुदाय का वोट का एक बड़ा हिस्सा उनके पाले में शिफ्ट हो सकता है। TMC कुर्मी (OBC) व महतो (ST) वोटरों को साधती है बीजेपी को नुकसान पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव से पहले अगर ममता जंगलमहल क्षेत्र के बीजेपी के कट्टर वोटर कुर्मी (OBC) और महतो (ST) वोटरों को साध लेती है तो विधानसभा चुनाव में बीजेपी को नुकसान होना अश्वयभावी है, लेकिन बिहार और पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव को लेकर बीजेपी की चिंता दूसरी है। बीजेपी अच्छी तरह समझ गई है कि दिल्ली में बीजेपी की हार में नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) मुद्दे की बड़ी भूमिका है। इसलिए वह सीएए और एनआरसी जैसे मुद्दे को दोनों राज्यों में चुनावी मुद्दे से दूर रखने का विचार बना रही है। दोनों राज्यों में बीजेपी केंद्र की योजनाओं के आधार पर बिछाएगी बिसात भाजपा चाहती है कि दोनों राज्यों के विधानसभा चुनाव के चुनावी कैंपेन में सिर्फ केंद्र की योजनाओं के आधार पर चुनावी बिसात बिछाई जाए। इनमें अनुच्छेद 370, सर्जिकल स्ट्राइक और केंद्र की लोक कल्याण कारी योजनाएं शामिल हैं और सीएए और एनआरसी को ठंडे बस्ते में डाल दिया। हालांकि बीजेपी का एक धड़ा चाहता है कि पार्टी को अपना आक्रामक रुख नहीं छोड़ना चाहिए और पुरानी नीतियों के आधार पर ही चुनाव में उतरना चाहिए। दिल्ली में बीजेपी का बुरा हाल देख बंगाल में चुनावी रणनीति बदलेगी बीजेपी पश्चिम बंगाल इकाई के एक वरिष्ठ भाजपा के मुताबिक लोकसभा चुनाव 2019 में भाजपा ने पश्चिम बंगाल की 42 लोकसभा सीटों में से 18 सीटों पर ऐतिहासिक जीत दर्ज की है, लेकिन जरूरी नहीं है कि विधानसभा में भी लोकसभा जैसा ही परिणाम बीजेपी को मिले, क्योंकि लोकसभा चुनाव 2019 में दिल्ली की सातों सीटों पर कब्जा करने वाली बीजेपी का हाल दिल्ली में किसी से छिपा हुआ नहीं है, जिसे हल्के में नहीं लिया जा सकता है। पश्चिम बंगाल बीजेपी का मानना है कि बीजेपी पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में रणनीति बदलनी होगी। संभवतः इसी ऊहोपोह में लगी बीजेपी आलाकमान हलकान है। बंगाल चुनाव में सीएए और NRC मुद्दे पर बीजेपी को मिल सकता है लाभ? हालांकि पश्चिम बंगाल में सबसे अधिक बांग्लादेशी घुसपैठिए की संख्या दो देखते हुए पश्चिम बंगाल चुनाव में सीएए और एनआरसी बड़ा मुद्दा है और बीजेपी को दोनों मुद्दों पर वहां की जनता का साथ मिल भी सकता है। बस बीजेपी को वहां की जनता को समझाना होगा कि पश्चिम बंगाल में सीएए और एनआरसी की क्यों जरूरत है, क्योंकि अगर बंगाल की जनात एनआरसी और सीएए पर राजी हो गई तो मोदी के चेहरे पर बीजेपी विधानसभा चुनाव में जीत की मुहर भी लगाने में कामयाब हो सकती है। TMC के पारंपरिक वोटर का बंगाल के 100 सीटों पर है सीधा दखल? यह मुद्दा इसलिए भी बीजेपी के लिए काम करेगा, क्योंकि ममता बनर्जी वोट बैंक के लिए बंगाल में सीएए और एनआरसी लागू नहीं कर रही है वरना करीब 100 विधानसभा सीटों पर सीधे दखल रखने वाला टीएमसी का वोट बैंक बने बैठे घुसपैठियों को बाहर करना पड़ जाएगा। बीजेपी शुरूआत से पश्चिम बंगाल में सीएए और एनआरसी की हिमायती रही है और पश्चिम बंगाल में सीएए और एनआरसी नहीं लागू करने के लिए टीएमसी चीफ पर निशाना साधती रही है, तो यह मुद्दा पश्चिम बंगाल चुनाव में बीजेपी के लिए लाभकारी होगा। लोकसभा की तरह आक्रामक होना चाहिए बीजेपी का कैंपेन: BJP सांसद विष्णुपुर से बीजेपी सांसद सौमित्र खान के मुताबिक बीजेपी को पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में भी लोकसभा चुनाव की तरह आक्रामक रणनीति पर कायम रहना चाहिए। उनका मानना है कि तृणमूल कांग्रेस जैसी पार्टियों से मुकाबला करने के लिए आक्रामकता जरूरी है, क्योंकि बंगाल में बाग्लादेशी घुसपैठियों का मुद्दा बहुत बड़ा है और इससे पश्चिम बंगाल के लोग बेहद पीड़ित हैं। बंगाल में लगातार हो रही बीजेपी नेताओं और कार्यकर्ताओं की हत्याएं प्रदेश में एनआरसी लागू करने को वक्त की जरूरत ठहराती हैं।
Source: OneIndia Hindi

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